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नहीं है - इस सम्बन्ध में उन्होनें विस्तृत चर्चा अपनी पुस्तक 'गरीबी-अमीरी पूर्वजन्म कर्म का परिणाम नहीं है', में की है। अतः यहाँ इस सम्बन्ध में विस्तार से जाना अपेक्षित नहीं है।
वस्तुतः प्रस्तुत कृति में कर्म के बन्ध, उदय आदि के सम्बन्ध में उनका चिन्तन मौलिक और नवीन है। किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है उसका शास्त्रीय आधार नहीं है। उन्होंने समस्त लेखन शास्त्रीय आधारों पर किया है। उनकी इस कृति का अवलोकन पाठकों के चिन्तन को नई दिशा देगा और शास्त्रीय आधारों पर एक सम्यक् अवबोध प्रदान करेगा साथ ही इस सम्बन्ध में परम्परा में चली आई भ्रान्तियों का निराकरण करेगा। उनका सम्यक् मार्ग दर्शन उनकी कृतियों के माध्यम से समाज को मिलता रहे, यही अपेक्षा है।
आमुख (लेखक की मूल पुस्तक 'बन्ध तत्त्व' से उद्धृत)
-धर्मचन्द जैन तत्त्वचिन्तक, ध्यान-साधक, विद्वद्वर्य एवं गुरुवर्य कन्हैयालाल जी लोढ़ा ने जैनधर्म-दर्शन में प्रतिपादित जीवादि नवतत्त्वों का नतून विवेचन किया है। 'बंध-तत्त्व' पर लिखित यह पुस्तक अनूठी एवं क्रान्तिकारी है। इसमें मात्र बंध तत्त्व का ही नहीं अपितु कर्म-सिद्धान्त विषयक अनेक अवधारणाओं का आलोडन एवं समीक्षण हुआ है। पूज्य लोढ़ा का कर्म विषयक मौलिक चिन्तन इस कृति का प्राण है। पुस्तक में आठ कर्मों एवं उनकी उत्तर प्रकृतियों का गूढार्थ प्रस्तुत करने का स्तुत्य उपक्रम किया गया है। पूज्य लोढ़ा सा. ने जैन कर्म-सिद्धान्त में प्रचलित अनेक भ्रान्त धारणाओं एवं विसंगतियों का निराकरण कर ज्ञानावरणादि अष्टविध कर्मों एवं कर्मसिद्धान्त विषयक अनेक अवधारणाओं का नूतन विवेचन किया है।
सर्वप्रथम हम ज्ञानावरण कर्म को ही लें। ज्ञानावरण कर्म जो जीव के ज्ञान को आवरित करता है, उसका सीधा सम्बन्ध मोहनीय कर्म से है। जितना मोहकर्म प्रगाढ़ होता है, उतना ही ज्ञानावरण कर्म प्रबल होता है। जितना मोह घटता है उतना ही ज्ञानावरण कर्म का प्रभाव क्षीण होता जाता है एवं ज्ञान गुण प्रकट होता जाता है। दूसरे शब्दों में ज्ञान गुण के घटने-बढ़ने का सम्बन्ध मोह के घटनेबढ़ने से है। मोह के कारण ज्ञानावरण में तरतमता होती है तथा ज्ञानावरण के
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जैनतत्त्व सार