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यह भी जानता है कि संसार में अशान्ति, अभाव, पराधीनता, चिन्ता, भय, संघर्षकलह, युद्ध, तनाव, दबाव, हीनभाव अन्तर्द्वन्द्व, नीरसता, जड़ता आदि भी दुःख है, उनके मूल में विषयसुख की अभिलाषा है, अतः विषयसुख की अभिलाषा त्याज्य है। विषय-कषाय एवं समस्त पापों के त्याग में धर्म है, यह श्रुतज्ञान है। यह बोध हमें तीर्थंकरों द्वारा निरुपित आगमवाणी से भी होता है, अतः उसे भी श्रुतज्ञान कहा है। यह ज्ञान जब चेतना के स्तर पर व्यक्ति को बिना आगमवाणी के अनुभूत होता है तो यह स्वतः उद्भूत श्रुतज्ञान कहलाता है। श्रुतज्ञान के स्वरूप को लोढ़ा सा. ने विस्तार से स्पष्ट किया है तथा 'श्रुतमनिन्द्रियस्य' सूत्र में स्थित 'अनिन्द्रिय' शब्द का अर्थ मन न मानकर चेतना स्वीकार किया है।
श्रुतज्ञानावरण के कारण श्रुतज्ञान अभिव्यक्त नहीं होता है। श्रुतज्ञानावरण का जितना क्षयोपशम होता है वह उतने अंश में प्रकट होता रहता है। मिथ्यात्व के रहते है वह श्रुत-अज्ञान कहलाता है तथा मिथ्यात्व के समाप्त होने पर उसे श्रुतज्ञान कहा जाता है। श्रुतज्ञान से ही केवलज्ञान तक पहुँचा जा सकता है। अवधिज्ञान एवं मन:पर्यवज्ञान न भी हो तो भी श्रुतज्ञान के प्रभाव से सीधे केवलज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। श्रुतज्ञान परोक्ष है एवं केवलज्ञान प्रत्यक्ष है। उनके अनुसार लोक का अर्थ शरीर है। शरीर में उठने वाली संवेदनाओं का आत्मप्रदेशों से होता है, इसलिए यह प्रत्यक्ष ज्ञान है। जब जीव अपने समस्त आत्म-प्रदेशों से शरीर के समस्त विषयभूत अर्थ को ग्रहण करता है तो सर्वावधि एवं परमावधि ज्ञान हो जाता है। लोढ़ा सा, के अनुसार लोक के बह्य रूपी पदार्थो को निश्चित दूरी एवं अवधि तक जानने से अवधिज्ञान का वास्तविक सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि आत्महित से इसका सीधा प्रयोजन नहीं है। लोढ़ा सा, के आनुसार अवधिदर्शन एवं अवधिज्ञान ध्यान की प्रकिया से जुड़े हुए हैं।
__मन की पर्यायों को मन से असंग रहते हुए जानना मनः पर्यायज्ञान है। चिन्तन के न करने पर भी मन की जो पर्याये प्रकट होती हैं वे मन:पर्याय ज्ञान का विषय बनती है। मतिज्ञान में जहाँ मन से सम्बद्ध अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा ज्ञान होते हैं तथा व्यक्ति स्वयं चिन्तन द्वारा मानसिक क्रियाओं को संचलित करता है वहाँ मनःपर्यायज्ञान में साधक अपनी ओर से चिन्तन-मनन एवं संकल्पविकल्प न कर मन से असंग एवं तटस्थ रहता है तथा मन में प्रकट होने वाले पूर्व संस्कारों को जानता है। मनःपर्यायज्ञान उन्हीं साधकों को होता है जो संयमी हैं , एवं विषय-भोगों से विरत हैं। मनःपर्यायज्ञान का प्रकट न होना मन:पर्यायज्ञानावरण है।
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जैनतत्त्व सार