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________________ उन सबका अपनी सजातीय कर्म प्रकृतियों में संक्रमण होकर प्रदेश उदय होता है। चारित्र की क्षपक श्रेणी के पूर्व तक किसी भी सन्नी मनुष्य के अन्त:कोटाकोटि सागर से कम स्थिति बंध नहीं होता है तथा सत्ता में स्थित कर्म-प्रकृतियों का स्थिति बंध भी अन्त:कोटाकोटि सागर से कम नहीं होता है। परन्तु अन्तर्मुहूर्त में उसे केवलज्ञान हो जाता है और उन सब कर्म प्रकृतियों की स्थिति का अपकर्षण होकर उसकी आयु के समान क्षय हो जाता है। अतः कोटाकोटि सागर तक कोई भी प्रकृति उदय में नहीं आती है, अतः कोई भी प्रकृति निकाचित नहीं हो सकती। चारों घाती कर्मों की समस्त कर्म-प्रकृतियों के स्थिति बंध का अपकर्षण होकर क्षय हो जाता है अतः इनका बंध निकाचित नहीं और अघाती कर्म की सत्ता में स्थित 85 प्रकृतियों में वेदनीय कर्म का साता वेदनीय- असाता वेदनीय में उदयमान प्रकृति में संक्रमण होता ही रहता है। नाम और गोत्र कर्म में भी शुभ प्रकृतियों में अशुभ प्रकृतियों का संक्रमण निरन्तर होता रहता है। नाम और गोत्र कर्म की उदयमान प्रकृतियों की उदीरणा भी होती रहती है। इस प्रकार समस्त घातीकर्म की प्रकृतियों का, वेदनीय, नाम व गोत्र कर्म की प्रकृतियों का अपकर्षण होने से निकाचन करण संभव नहीं है। उदयमान आयु कर्म में अपूर्व गुणस्थान के पूर्व तक उदीरणा होती है अतः आयु कर्म में भी निकाचन करण संभव नहीं है। सत्ता में स्थित आयु कर्म में जब उत्कर्षण-अपकर्षण नहीं होता है तब निकाचन करण संभव है। तात्पर्य यह है कि किसी कर्म 'प्रकृति का', उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, उदीरणा रूप में नहीं होता है। इसी प्रकार निधत्त व निकाचित बंध भी नहीं होता है। ये सब करण हैं अर्थात् कर्म की अवस्थाएँ हैं। जिस समय कर्मप्रकृति का स्थिति या अनुभाग घटता है उस समय वह अपवर्तन करण कहलाता है, जिस समय बढ़ता है उस समय उत्कर्षण करण कहलाता है। इसी प्रकार जिस कर्म प्रकृति में जिस समय उदीरणा, उत्कर्षण, अपकर्षण व संक्रमण ये चारों बातें नहीं होती हैं उस समय तक वहाँ उसका निकाचित करण कहलाता है। जब उसी प्रकृति में उत्कर्षण होता है तो उत्कर्षण करण कहलाता है। प्रायः सभी कर्म प्रकृतियों के स्थिति, अनुभाग व प्रदेश बंध में सतत परिवर्तन होता रहता है। परन्तु अबाधाकाल में उदीरणा करण, उद्वर्तन करण, अपवर्तन करण एवं संक्रमण करण नहीं होता है। उस समय उस प्रकृति में अन्य करण नहीं होने से निकाचना करण कहा जायेगा। एक ही कर्म प्रकृति में जिस समय अपकर्षण होता है उस समय अपकर्षण करण कहलाता है। उसी प्रकृति में फिर जिस समय उत्कर्षण होता है उस समय उत्कर्षण करण कहलाता है। उस [164] जैनतत्त्व सार
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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