________________
प्रकृति में जिस समय संक्रमण होता है उस समय संक्रमण करण कहा जाता है। इसी प्रकार जिस समय उस प्रकृति में उदीरणा, उत्कर्षण, अपकर्षण व संक्रमण ये चारों नहीं होते हैं उस समय निकाचना करण कहा जाता है। निकाचना करण का यह अर्थ या अभिप्राय यह नहीं है कि फिर उसमें कभी उद्वर्तन, अपवर्तन, संक्रमण करण नहीं होगा।
उदवर्तना, अपवर्तना, उदीरणा, उपशमना आदि अन्य करणों का विशद् वर्णन पुस्तक में दिया गया है। यहाँ संक्रमण करण की विशेषता का वर्णन किया जा रहा है:संक्रमण
संक्रमण : किसी प्रकार के विशेष परिवर्तन या रूपान्तरण को संक्रान्ति या संक्रमण कहते हैं। जैसे एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र (स्थान) में चले जाना, क्षेत्र संक्रमण है। एक ऋतु के चले जाने से दूसरी ऋतु का आ जाना, काल संक्रमण है। किसी व्यक्ति से प्रेम हटकर अन्य व्यक्ति से प्रेम हो जाना भाव संक्रमण है। इसी प्रकार कर्म जगत में भी संक्रमण होता है। इसका सामान्य नियम यह है कि पूर्व में बंधी हुई कर्म प्रकृतियों का संक्रमण या रूपान्तरण वर्तमान में बंधने वाली कर्म प्रकृतियों में होता है।
जीव के वर्तमान परिणामों के कारण से जो प्रकृति पूर्व में बंधी थी, उसका न्यूनाधिक व अन्य प्रकृति रूप में परिवर्तन व परिणमन हो जाना, कर्म का संक्रमण है। संक्रमण के चार भेद हैं- 1. प्रकृति संक्रमण 2. स्थिति संक्रमण 3. अनुभाग संक्रमण और 4. प्रदेश संक्रमण। ___(1) प्रकृति संक्रमण : कर्म की किसी प्रकृति का अन्य प्रकृति में परिवर्तन होना, प्रकृति संक्रमण है। कर्म की ज्ञानावरणीय आदि आठ मूल प्रकृतियाँ हैं। इनमें परस्पर संक्रमण नहीं होता है। इन आठों कर्मों में से प्रत्येक की विभिन्न संख्या में उत्तर प्रकृतियाँ हैं। प्रत्येक कर्म की इन उत्तर प्रकृतियों में ही अर्थात् सजातीय कर्म प्रकृतियों में ही संक्रमण होता है। अन्य जातीय कर्म प्रकृतियों में संक्रमण नहीं होता। यह ध्रुव नियम है। इसमें कहीं अपवाद नहीं है। जैसे ज्ञानावरणीय कर्म की किसी प्रकृति का दर्शनावरणीय आदि अन्य सात कर्मों की किसी प्रकृति में संक्रमण नहीं होता। ज्ञानावरणीय कर्म की मतिज्ञानावरणीय आदि पाँचों उत्तर प्रकृतियों में ही संक्रमण होता है।
बंध तत्त्व
[ 165]