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चारित्र, केवलज्ञान, केवल दर्शन की उपलब्धि संभव नहीं। है। ऐसी मान्यता नितान्त निराधार है एवं कर्म-सिद्धान्त, तत्त्वज्ञान व आगम-विरुद्ध है और मानवता की भी घोर विरोधी है। वास्तविकता तो यह है कि दया, दान, करुणा, अनुकंपा, सेवा सरलता, मृदुता आदि सद् प्रवत्तियों व शुभयोग से तथा समिति, गुप्ति, संयम आदि समस्त साधनाओं के पाप कर्मों के आस्रव का निरोध अर्थात् संवर व निर्जरा से ही मुक्ति की उपलब्धि होती है। संक्षेप में कहें तो दोष या पाप से आत्मा अशुद्धअपवित्र होती है। दोष या पाप प्राणी के करने से होता है, स्वत: नहीं होता है। अतः दोष के त्याग से, दोष न करने से आत्मा निर्दोष एवं पवित्र होती है जिससे पुण्य कर्मों का आस्रव एवं अनुबन्ध होता है। आशय यह है कि पुण्य कर्मों का आस्रव एवं अनुबंधस, निर्दोषता से, पाप के त्याग से स्वतः होता है। अतः साधक पर पाप के त्याग का ही दायित्व है, पुण्य का नहीं। पुण्यास्रव व पुण्यानुबंध पाप से त्याग से होता है। अतः पुण्य कर्म में भी महत्व पाप के त्याग का ही है।
इस कृति में मैंने जो निष्कर्म दिए हैं, वे जैनागम एवं कर्म-सिद्धान्त के ग्रंथों में प्रतिपादित तथ्यों के आधार पर स्थापित हैं। मैंने लेखन में तटस्थ एवं संतुलित दृष्टिकोण अपनाने का एवं भाषा में संयत रहने का प्रसास किया है। तथापि मेरे क्षायोपशमिक ज्ञान में कमी या भूल होना संभव है। अतः मैं उन सभी आगमज्ञ विद्वानों, तत्त्वचिंतकों एवं विचारको के सुझावों, समीक्षाओं, समालोचनाओं एवं मार्ग-दर्शन का आभारी रहूँगा, जो प्रस्तुत कृति का तटस्थ भाव से अध्ययन कर अपने मन्तव्य से मुझे अवगत करायेंगे।
विशेष जानकारी के लिए 'निर्जरा तत्त्व' पुस्तक के निम्नांकित अध्याय पठनीय हैं:
निर्जरा तत्त्व में पापकर्मों की निर्जरा ही इष्ट है, पुण्यकर्मों की नहीं; दुःखमुक्ति का उपाय : संवर-निर्जरा; कर्म-निर्जरा की साधना : सम्यक् तप; कर्म-निर्जरा की प्रक्रिया : तप-साधना; शुभ व शुद्धभाव से कर्म क्षय होते हैं; उपवास; विनय; वैयावृत्त्य; स्वाध्याय एवं उसके आनुषङ्गिक फल; स्वाध्याय का आभ्यन्तर तपपरक अर्थ; धर्मध्यान : स्वरूप, प्रकार एवं उद्देश्य; धर्मध्यान की चार भावनाएँ; कर्मनिर्जरा एवं आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया : ध्यान; ध्यान-साधना का मनोवैज्ञानिक पक्ष; स्वाध्याय, ध्यान तथा कायोत्सर्ग से कर्म-निर्जरा; ध्यानविषयक जिज्ञासाएँ और समाधान।
निर्जरा तत्त्व
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