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यहाँ चारित्र भावना से नवीन कर्मों का अनादान पाप कर्मों का ही कहा गया है, शुभ (पुण्य) कर्मों का नहीं कहा है, बल्कि यहां पुण्य कर्मों का आदान ग्रहण होना कहा है। इसी प्रकार शुक्लध्यान के चार आलम्बन कहे गए हैंअह खंति मद्दवऽज्जवमुत्तीओ जिणमदप्पहाणाओ।
आलंबणाई जेहिं सुक्कज्झणं समारुहइ।
- ध्यान शतक ६९, धवलटीका पुस्तक १३ गाथा ६४ पृष्ठ ८० । अर्थ-क्षमा, मार्दव, आर्जव और मुक्ति ये जिनमत में ध्यान के प्रधान आलंवन या अंग कहे गये हैं। इन आलंबनों का सहारा लेकर ध्याता शुक्ल ध्यान पर आरूढ होता है। लेखक ने 'पुण्य-पाप तत्त्व' पुस्तक के 'पुण्य का उपार्जन कषाय की कमी से' प्रकरण में तत्त्वार्थ सूत्र एवं भगवती सूत्र के उद्धरणों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि क्षमा से सातावेदनीय, मार्दव से उच्च गोत्र, आर्जव से शुभ नाम कर्म और मुक्ति से शुभ आयु का शुभास्रव व शुभानुबंध होता है और इन्हीं गुणों में शुक्लध्यान होता है। अर्थात् जो शुक्लध्यान के हेतु हैं वे ही शुभास्रव, पुण्यास्रव या शुभानुबंध के भी हेतु है। शुक्ल ध्यान मोक्ष का हेतु है। अतः शुभास्रव और शुभानुबंध मोक्ष के बाधक नहीं हो सकते। क्षमा, मार्दव, आर्जव व मक्ति इन गुणों की उपलब्धि क्रमशः क्रोध, मान, माया व लोभ कषाय के क्षय से होती है। अतः ये गुण जीव के स्वभाव हैं, धर्म हैं, परिणामों की विशुद्धि के द्योतक हैं शुद्धोपयोग हैं और इन गुणों का क्रियात्मक रूप शुभ योग है। अतः ये पुण्यास्रव के हेतु हैं। इससे जयधवल टीका में प्रतिपादित यह कथन की कि 'शुद्धोपयोग और अनुकंपा (शुभ योग) से पुण्यास्रव होता है', पुष्ट होता है। कषाय की हानि या क्षय से ही परिणामों में शुद्ध तथा योगों में शुभता आती है, जिससे ही पुण्य का आस्रव व अनुबंध होता है।
कर्म-सिद्धान्त के तात्त्विक विवेचन से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि चार घाती कर्मों की ४७ पाप कर्म प्रकृतियों के बंध, उदय व सत्ता वीतरागता, केवलज्ञान, केवलदर्शन और क्षायिक चारित्र में बाधक हैं। पुण्य कर्मों की कोई भी प्रकृति वीतरागता में, शुक्ल ध्यान में या मुक्ति मार्ग में बाधक नहीं है। कुछ लोग यह मानते हैं कि पुण्य के आस्रव की हेतु दया, दान, करुणा आदि सद् प्रवत्तियों का व शुभ योग तथा समिति गुप्ति, संयम आदि का त्याग किये बिना वीतरागता, क्षायिक
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जैनतत्त्व सार