SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आमुख (लेखक की मूल पुस्तक 'निर्जरा तत्त्व' से उद्धृत) - धर्मचन्द जैन I पूर्वोपार्जित कर्मों का क्षय किये बिना मोक्ष नहीं होता । निर्जरा में कर्मों का क्षय दो प्रकार से होता है - स्वतः और पुरुषार्थत: । जब कर्म स्वयं अपने निर्धारित समय पर उदय में आते हैं, तब कर्मों की स्वत: निर्जरा होती है । यह निर्जरा सभी संसारी जीवों के नियमित रूप से होती रहती है। इस निर्जरा से मोक्ष का लक्ष्य पूर्ण नहीं होता, क्योंकि इसमें अधिक कर्मों की निर्जरा नहीं होती, साथ ही नवीन कर्मों का बन्ध भी जारी रहता है। जैन पारिभाषिक शब्दावली में इसे अकाम निर्जरा अथवा सविपाक निर्जरा कहा जाता है। दूसरे प्रकार की निर्जरा के लिए तप रूपी पुरुषार्थ अपेक्षित है। इसमें कर्म अपने उदय काल के पूर्व ही उदीर्ण होकर निर्जरित हो जाते हैं। इस निर्जरा के अन्तर्गत कर्मों के स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध का अपकर्षण या घात होता है। जिससे कर्म तीव्रता से निर्जरित होते हैं । निर्जरा की यह प्रक्रिया पुरुषार्थपूर्वक होती है, इसलिए इसे पुरुषार्थतः होने वाली निर्जरा कहा जा सकता है। जैन शब्दावली में इसे सकाम निर्जरा अथवा अविपाक निर्जरा कहा गया है । प्रस्तुत पुस्तक के लेखक मनीषी विद्वद्वर्ग श्री कन्हैयालाल जी लोढ़ा ने निर्जरा तत्त्व के अन्तर्गत द्वितीय प्रकार की निर्जरा को ही स्थान दिया है। कर्मों की निर्जरा का सम्यम्दर्शन और सम्यम्ज्ञान से घनिष्ठ सम्बन्ध है । इनके होने पर ही चारित्र और तप सम्यक् होते हैं । तप को निर्जरा का प्रमुख साधन प्रतिपादित करते हुए यह स्वीकार किया गया है कि सम्यक् ज्ञानी का तप उच्छ्वास मात्र काल में कर्मों की जितनी निर्जरा करता है उतनी अज्ञानी करोड़ों वर्षों में भी नहीं कर पाता - जं अन्नाणी कम्मं खवेइ, बहुयाइं वासकोडीहिं । तं नाणी तीहिं गुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेणं ।। ज्ञानी ( सम्यदर्शन युक्त) भी यह कर्मक्षय मन, वचन और काया की गुप्ति से युक्त होकर तप करने पर कर पाता है । इससे यह सिद्ध होता है कि सकाम निर्जरा में सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप चारों सहायभूत हैं । सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान इस निर्जरा में आधार भूमि का कार्य करते हैं तथा सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप इस निर्जरा में अनवरत वृद्धि करते हैं। कर्म ग्रन्थ, जैतत्त्व सा [144]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy