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________________ स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, 'मैं' का केवल भास होता है। अंतर्यात्रा करते हुए द्रष्टा से दृश्य पृथक् है, यह अनुभव प्रत्यक्ष होता है, जिससे 'मैं' का भासमान रूप गलने व विसर्जन होने लगता है। यह अहं रहित निज स्वरूप की ओर अग्रसर होना ही विनय है। प्रतिसंलीनता और प्रायश्चित्त 'अहंभाव' मिटाने के सहायक तप हैं। वैयावृत्त्य- विनय तप से जब 'मैं' शेष नहीं रहता है तब 'है' या चेतन तत्त्व ही रह जाता है। यह चेतनत्व सब जीवों में समान है। अतः उसे सब जीव आत्मवत्, निजस्वरूप लगते हैं फिर कोई पराया नहीं रहता है। अतः उसमें समस्त जीवों के प्रति करुणा, आत्मीयता, मैत्री व प्रमोद भाव जागृत होता है। मैत्री व प्रमोद भाव सर्व-हितकारी प्रवृत्ति करने के लिए प्रेरित करता है। सर्वहितकारी प्रवृत्ति को ही सेवा व वैयावृत्य कहा है। सेवा व वैयावृत्त्य में कर्तृत्व भाव तथा भोक्तृत्व भाव (फल की इच्छा) नहीं रहने से पाप कर्मों का बंध नहीं होता है। अभिप्राय यह है कि वैयावृत्त्य से उदयमान राग गलता है, जिससे विशुद्धिकरण, विशल्यीकरण होता है एवं पाप कर्मों का क्षय होता है। विनय तप से 'मैं' का विसर्जन हो जाने से विषयेच्छा व मेरापन-ममत्व मिट जाता है, जिससे स्वार्थपरता सर्वहितकारी प्रवृत्ति में परिणत हो जाती है। सर्व हितकारी प्रवृत्ति दोष रहित होने से पाप कर्मों का बंध नहीं होता है। सेवाभाव किसी कर्म के व कषाय के उदय से नहीं होता है, अतः सेवाभाव जीव का स्वभाव है, विभाव नहीं है। विभाव मिटाना व स्वभाव प्रकट करना ही तप का कार्य है। अतः सेवा या वैयावृत्त्य तप है। तप से कर्मों (पाप प्रवृत्तियों एवं प्रकृतियों) की निर्जरा होती है, पाप-कर्म-बंध नहीं होता है। स्वाध्याय- स्वाध्याय का अर्थ है स्व का अध्ययन करना। स्व का अध्ययन से अभिप्रेत है अपने स्वभाव का अध्ययन करना। यह नियम है कि जिसका अध्ययन करना है उसमें विचरण करना आवश्यक है। अतः स्वभाव के अध्ययन के लिए स्वभाव में विचरण करना होता है। स्वभाव में विचरण विभाव में विचरण के निरोध करने से ही सम्भव है। विभाव है असत्- विनाशी, परभाव। असत् चर्चा, असत् (पर) चिन्तन, असत् (पर) चाह का त्याग करने पर ही स्वभाव का, स्व का अध्ययन करना सम्भव है। अतः अंतर्यात्रा करते समय सर्व सावध योगों, विभावों को त्याज्य समझकर इनसे तो असंग रहना ही है, साथ ही अन्तर्यात्रा में प्रकट होने वाली दिव्य ध्वनियों, दिव्य ज्योतियों आदि परिवर्तनशील विभूतियों में रमण न निर्जरा तत्त्व [117]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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