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करके इनसे भी असंग रहना है। कारण कि जहाँ 'पर' का, विनाशी का, असत् का
अध्ययन है वहाँ स्व का अध्ययन सम्भव नहीं है । स्व का अध्ययन अपने स्वरूप में विचरण - रमण से ही सम्भव है । स्वभाव का ज्ञान ही श्रुतज्ञान है और स्वभाव का अध्ययन ही श्रुतज्ञान का अध्ययन है, स्वाध्याय है ।
ध्यान
स्वाध्याय तप द्वारा आत्म-निरीक्षण से यह बोध होता है कि जब विषय, कषाय, राग, द्वेष आदि दोषों व दुष्प्रवृत्तियों (पापों) का सेवन किया जाता है तब चित्त में संकल्प-विकल्प, कर्तृत्व, भोक्तृत्व भाव पैदा होते हैं, जिससे स्वाभाविक शान्ति, स्वाधीनता, प्रसन्नता, निर्भयता, निश्चिंतता आदि आत्म- गुणों का अपहरण हो जाता है और दोषमय प्रवृत्ति के त्याग से सहज निवृत्ति होती है अर्थात् मन, वचन, काया की प्रवृत्ति रुक जाती है जिससे स्वतः ध्यान हो जाता है जैसाकि आचार्य नेमिचन्द्र ने कहा है
मा चिट्ठह, मा जंप, मा चिंतह, किं वि जेण होई थिरो । इणमेव परं हवे झाणं ॥
अप्पा अप्पम्मि रओ,
द्रव्य संग्रह - 59
ध्याता! तू न तो शरीर से कोई चेष्टा कर, न वाणी से कुछ बोल और न मन से कुछ चिन्तन कर, इस प्रकार त्रियोग का निरोध करने से तू स्थिर हो जायेगा । तेरी आत्मा आत्मरत हो जायेगी । यही परम ध्यान है ।
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ध्यान पूर्णतः अन्तर्मुखी साधना है। ध्यना की प्रक्रिया के अनुसार अन्तर्मुखी हो, अपने अन्तर में देह के भीतर जहाँ चेतना व्याप्त है, वहाँ जो संवेदन रूप अनुभव हो रहा है, उसे तटस्थ भाव से देखा जाता है। वहाँ अनुकूल वेदना के प्रति राग, प्रतिकूल वेदना के प्रति द्वेष नहीं करना है । इस प्रकार राग-द्वेष रहित समभाव में रहते हुए केवल दर्शन, केवल ज्ञान करना है। अपनी ओर से कुछ नहीं करना है, न उसे बुरा मानना है, न अच्छा मानना है, न उसका समर्थन करना है और न विरोध करना है, प्रत्युत तटस्थ रहना है। इससे कर्म त्वरित गति से उदय में आते हैं। जो कर्म सघन व जड़ता युक्त होते हैं उन कर्मों की सघनता व जड़ता दूर करने का उपाय हैं, उन्हें वेधन कर धुनना। इससे सघन कर्म खण्ड-खण्ड होकर बिखर जाते हैं, फिर तितर-बितर होकर निर्जरित हो जाते हैं, इससे सघनता व जड़ता मिटकर चिन्मयता आ जाती है।
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जैतत्त्व सा