SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ की प्रवृत्तियाँ साधक को बहिर्मुखी बनाती हैं, स्व में स्थित नहीं होने देतीं, क्योंकि प्रवृत्ति में रत या तल्लीन रहते साधक अंतर्मुखी नहीं हो सकता और अंतर्मुखी हुए बिना स्वभाव में स्थित नहीं हो सकता । अतः स्वानुभूति करने के लिए यह आवश्यक है कि मन, वचन और काया की वृत्तियाँ या प्रवृत्तियाँ जो बाह्य विषयों में तल्लीन व संलीन हो रही हैं, उन्हें बाह्य-विषयों से विमुख कर स्व में लीन किया जाय। इसे ही प्रतिसंलीनता या प्रत्याहार कहते हैं । प्रतिसंलीनता के चार प्रकार हैं : 1. इन्द्रिय प्रतिसंलीनता 2. कषाय प्रतिसंलीनता 3. योग प्रतिसंलीनता और 4. विविक्तशयनासन प्रतिसंलीनता । इन्द्रियों को विषयों में तल्लीन होने से रोकना इन्द्रिय प्रतिसंलीनता है । कषायजन्य राग-द्वेष के प्रवाह का निरोध करना कषाय प्रतिसंलीनता है । मन, वचन, काया की दुष्प्रवृत्तियों का निरोध करना, इनकी गुप्ति करना योग प्रतिसंलीनता है। शयन ( सुषुप्ति - गहन निद्रा) में सब क्रियाओं से रहित हो जाते हैं, उसी प्रकार जागृत में सुषुप्तिवत् होना विविक्त शयनासन है । यह जागृतसुषुप्ति अर्थात् पूर्ण शान्त अवस्था प्रतिसंलीनता का चरम रूप है। यह आभ्यन्तर तप - साधना की भूमि है। इसके अभाव में अतंर्यात्रा अर्थात् आभ्यन्तर तप सम्भव नहीं है। आशय यह है कि 'प्रतिसंलीनता' इन्द्रिय, कषाय व योग का संवर व शील है । शील पालन से ही समाधि सम्भव है। शयनासन में पूर्ण शिथिलीकरण समाहित है । विविक्त शयनासन पूर्ण विश्राम, पूर्ण संवर है। मन्तव्य यह है कि प्रथम तो साधक यथासम्भव प्रवृत्ति का पूर्ण निरोध करे, फिर भी शारीरिक आवश्यकता व सेवा के लिए जो प्रवृत्ति करनी पड़े, पराश्रय लेना पड़े उसे यथासम्भव कम से कम करे, नवीन प्रवृत्ति का आह्वान न करे। प्रवृत्ति करने में अपना संकल्प न रखे अर्थात् कर्तृत्व व भोक्तृत्व भाव न आने पावे, करना होने में बदल जाये । यही बाह्य तप का कार्य है । जिस क्रिया में कर्तृत्वभाव नहीं है, संकल्प नहीं है, रस नहीं लिया जाता है, जो वासना से रहित है, उस प्रवृत्ति या क्रिया का संस्कार अंकित नहीं होता है, उससे नया कर्म नहीं बंधता है। उसका संवरणसंवर हो जाता है । प्रतिसंलीनता संवर की पूर्णता है । उपर्युक्त छहों बाह्य तपों का कार्य विषय-भोगों की प्रवृत्तियों या अशुभ योगों के असंयम का त्याग करना है । अशुभ योगों के असंयम के त्याग से शुभ योग व संयम का पालन स्वतः होता है जो साधक के लिए आवश्यक है । कहा भी है निर्जरा तत्त्व [115]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy