________________
बाह्य तप अणसणमूणोरिया भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ।
काया किलेसो, संलीणया य बज्झो तवो होइ।
बाह्य तप के छह भेद हैं-अनशन ऊनोदरी, वृत्ति-प्रत्याखयान (भिक्षाचर्या), रस-परित्याग, कायक्लेश और प्रतिसंलीनता।
अनशन- आहार न करना अनशन कहा जाता है। आहार त्याग से यहाँ अभिप्राय रसना इन्द्रियाँ का आहार अन्न, जल आदि भोजन का त्याग तो है ही, साथ ही शेष इन्द्रियाँ कान, आँख, नाक, स्पर्शन के आहार या भोग-साम्रगी श्रवण, दर्शन सूंधना आदि के भोगों का त्याग भी है अर्थात् तप के संदर्भ में 'आहार' का अर्थ है इन्द्रियों द्वारा भोग्य सामग्री का भोग करना और 'आहार' त्याग का अर्थ है इन भोगों का त्याग करना।
ऊनेदरी-जीवन पर्यन्त अनशन नहीं किया जा सकता। जीवन में आहार की आवश्यकता होती ही है। अतः जब आहार करना ही पड़े तो आहार या भोग्य साम्रगी का भोग जितना कम कर सकें उतना कम करना ऊनोदरी तप है।
वृत्ति-प्रत्याख्यान- जो भोजन करना पड़े उसमें भी वृत्तियों का संकोच करना चाहिए अर्थात् विविध प्रकार के रस प्रद आहार को त्यागना वृत्ति प्रत्याख्यान है। इसका दूसरा नाम भिक्षाचरी है, जिसका अर्थ है- अपनी रस की वृत्तियों की पूर्ति करने हेतु आहार नहीं लेना, भिक्षा में सहज ही जो आहार मिल जाए उसे ग्रहण करना। भिक्षावृति वृत्तियों के संकोच का सुन्दर, सहज, सुगम रूप है। ___ रस-परित्याग- वृत्तियों को सीमित कर जो, भोजन ले रहे हैं, उस भोजन में भी स्वाद या रस नहीं लेना। समभाव से उदासीन भाव से उसे ग्रहण करना अर्थात् इन्द्रिय विषयों को ग्रहण करते हुए उनमें राग-द्वेष न करना रस-परित्याग है।
काय-क्लेश- काया पर आने वाले गर्मी, सर्दी, वर्षा आदि कष्टों से अपने को न बचाना, उन्हें स्वेच्छा से समभाव पूर्वक सहन करना काय-क्लेश तप है।
प्रतिसंलीनता-इन्द्रिय और मन के विषय भोगों गई बहिर्मुखीवृत्ति को मोड़कर पुनः अपने आत्म-स्वरूप में संलीन करना प्रतिसंलीनता है। दूसरे शब्दों में कहें तो बहिर्मुखीवृत्ति को विमुख का अन्तर्मुखी बनाना प्रतिसंलीनता है। बाह्य तप की परिसीमा की सूचक है और आभ्यन्तर तप का प्रवेश द्वार है। मन, वचन और काया
[114]
जैनतत्त्व सार