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विशुद्धि का है, भावों की पवित्रता का है, पुण्य तत्त्व का है, पुण्य के आस्रव व अनुभाग की वृद्धि का नहीं। आशय यह है कि पुण्य के आस्रव से आत्मा पवित्र नहीं होती है, अपितु आत्मा के पवित्र होने से पुण्य के आस्रव व अनुभाग में वृद्धि होती है। पुण्य प्रकृतियों की उपलब्धि पाप के घटने से स्वतः होती है। अतः ये साधन-सामग्री हैं इनका सदुपयोग सेवा-साधना में करने से आत्मोत्थान होता है,
और इनका उपयोग विषय-भोगों में करने के आत्मा का पतन होता है, पाप की वृद्धि होती है जो आत्मा के लिए अहितकर व त्याज्य है। सदुपयोग-दुरुपयोग करना जीव के पुरुषार्थ का निर्भर है- कर्मोदय पर नहीं।
पाप व पुण्य के आस्रव का संबंध प्रवृत्ति से है। प्रवृत्ति दो प्रकार की होती है- (१) दुष्प्रवृत्ति और (२) सद्प्रवृति। जिस प्रवृत्ति से स्व-पर का अहित हो, हानि हो, दुःख हो, पतन हो वह दुष्प्रवृत्ति है, दुष्कर्म है, पाप है। जैसे-किसी मनुष्य के प्रति व हमारे प्रति कोई दूसरा व्यक्ति (१) कष्ट दे, मारे , (२) झूठ बोले, (३) चोरी करे (४) व्यभिचार करे (५) शोषण करे, ठगने का व्यवहार करे, (६) क्रोध करे, (७) अभिमान कर नीचा दिखावे, (८) धोखा-धड़ी करे, (९) लोभ से ठगे, (१०) भोग करे, आसक्त होवे, (११) द्वेष करे, (१२) कलह-झगड़ा करे, (१३) कलंक लगावे (१४) चुगली करे (१५) निंदा करे तो उसके इन व्यवहारों को मानव मात्र बुरा मानता है। यह ज्ञान मानव मात्र को स्वाभाविक है अतः स्वयं सिद्ध है। इसी को जैन धर्म में पाप प्रवृत्ति कहा है और इसके प्राणातिपात आदि अठारह भेद कहे हैं अर्थात् दूसरों के द्वारा जैसा व्यवहार हम अपने प्रति बुरा, अनिष्ट, हानिप्रद व दुःखद मानते हैं वैसा व्यवहार करना पाप है, पापास्रव का हेतु है। पाप त्याज्य ही होता है।
पापास्रव का मूल कारण विषय-सुखों का भोग है, सुख लोलुपता है, सुख का प्रलोभन है, 'पर' पदार्थ से सुख पाने की इच्छा है। 'पर' पदार्थ सुख-दुःख देता है, यह मान्यता ही मिथ्यात्व है। पर-पदार्थों के सुख-प्राप्ति के लिए प्रवृत्ति करना ही असंयम है, अविरति है। पर पदार्थ के सुख-भोग में आसक्त होना, मनोज्ञ विषयों में राग अमनोज्ञ विषयों के प्रति द्वेष करना कषाय है। कषायवर्द्धक प्रवृत्ति करना अशुभ योग है। ये ही अशुभ योग मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और पापासव के हेतु है, संसार-भ्रमण के कारण है, समस्त दोषों व दुःखों के जनक हैं, अतः त्याज्य हैं। इसके विपरीत आत्मा स्वयं सुख-दुःख का कर्त्ता-विकर्ता है, अन्य
आस्रव-संवर तत्त्व
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