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द्विस्थानिक हो जाता है और पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग द्विस्थानिक से बढ़कर चतुःस्थानिक हो जाता है, जिसका घात सम्यक्त्व विद्यमान रहते कभी नहीं होता है। अविरति के निरोध से विरति (संयम) का पालन होता है। क्षपक श्रेणी में उत्कृष्ट संयम होता है। उस समय पुण्य-प्रकृतियों का अनुभाग बढ़कर उत्कृष्ट हो जाता है।
प्रमाद साधक के आत्मोत्कर्ष में बाधक है। प्रमाद का त्याग कर क्षपक श्रेणी पर आरोहण करने वाला साधक के पुण्य के उत्कृष्ट अनुभाग का अर्जन (आस्रव) होता है।
कषाय से ही स्थिति और अनुभाग को बंध होता है। यह बंध कषाय कम हो तो कम और कषाय अधिक हो तो अधिक होता है। अतः कषाय से अनुभाग का बंध होता है।' यह सूत्र पाप कर्म प्रकृतियों पर ही लागू होता है, पुण्य कर्म के अनुभाग में वृद्धि तथा पुण्य कर्म का आस्रव कषाय की कमी से, निरोध से व त्याग से, आत्मा के पवित्र होने से होता है। क्रोध, मान, माया व लोभ इन चारों कषायों के निरोध से चारों ही पुण्य कर्मों का आस्रव-अर्जन होता है। इसका विस्तार से विवेचन कषाय में कमी से पुण्यास्रव और कषाय की वृद्धि से पापासव" प्रकरण में किया गया है।
मन, वचन, व तन की प्रवृत्ति रूप योग दो प्रकार का है- (१) अशुभ योग और (२) शुभ योग। अशुभ योग से पापास्रव होता है और शुभ योग से पुण्य का आस्रव होता है। परन्तु शुभ योग को आस्रव तत्त्व का हेतु न कहकर संवर का हेतु कहा है। इसका कारण यह है कि शुभ योग से अशुभ योग का निरोध होता है, जिससे पापास्रव का निरोध होता है अर्थात् पाप कर्मों का संवरण होता है। पापास्रव के निरोध का तथा पाप कर्मों के संवर का हेतु होने से शुभयोग को संवर कहा है। इसका विशेष वर्णन शुभयोग संवर क्यों? प्रकरण में किया गया है। तात्पर्य यह है कि मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय व अशुभ योग के निरोध से स्वतः सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय व शुभ योग संवर होता है। इन संवरों से पुण्य का आस्रव होता है। अतः पुण्यास्रव का निरोध करना संवर का निरोध करना है। भगवती सूत्र शतक १ उद्देशक ७ में कहा है कि "यदि जीव के अशुभ कर्म बंधे हुए न हों तो उसके शुभ कर्म होते हैं। अशुभ कर्मों का उदय न होने पर शुभ कर्मों का उदय स्वतः होता है। अतः शुभ कर्मों को उदय को हेय व त्याज्य
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जैनतत्त्व सार