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कहा है। कारण कि चारित्र मोहनीय के श्रेणीकरण को छोड़कर जो आठवें गुणस्थान से ऊपर होती है और उसका काल अंतर्मुहूर्त मात्र है- शेष आठवें गुणस्थान तक पुण्य प्रकृतियों के आस्रव का निरोध होने पर उनकी विरोधिनी पाप प्रकृतियों का आस्रव होता है। यह नियम है कि जैसे-जैसे आत्मोत्थान होता जाता है वैसेवैसे पुण्य के अनुभाग में वृद्धि होती जाती है। यही कारण है कि सातावेदनीय,उच्चगोत्र, शुभआयु, आदेय, यशकीर्ति आदि शुभनाम कर्म की पुण्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग केवलज्ञान प्राप्त करने वाले साधक के ही होता है, इससे निम्न स्तर के साधक के नहीं होता। अतः पुण्य के निरोध का संवर तत्त्व में स्थान नहीं है, पुण्य कर्म के अनुभाग का क्षय किसी भी साधना से संभव नही है, इसीलिए वीतराग केवली के पुण्य कर्म की प्रकृतियों का क्षय नहीं होता है।
मन, वचन व काया की प्रवृत्ति से आत्मा में स्पंदन होता है जिससे कार्मण वर्गणाएँ आकृष्ट होकर आत्म-प्रदेशों में प्रवेश करती हैं, इसे ही आस्रव कहते हैं। अथवा कर्मों के आगमन के हेतुओं, विकारों की उत्पत्ति को आस्रव कहते हैं। यह आस्रव आत्मा के परिणामों से होता है। आत्मा के परिणामों में विद्यमान कषाय में वृद्धि होने को संक्लेश कहा जाता है। संक्लेश से पापास्रव होता है और आत्मा के परिणामों में विद्यमान कषाय में कमी होने से आत्मा पवित्र होती है, इसी को विशुद्धि कहते हैं। विशुद्धि से पुण्यास्रव होता है। ___ पापास्रव आठों ही कर्मों का होता है, परन्तु पुण्यासव वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार कर्मो का ही होता है। ये चारों कर्म अघाती हैं। अर्थात् इनसे आत्मा के किसी भी गुण का अंश मात्र भी घात नहीं होता है। ये कर्म जीव के लिए हानिकारक नहीं हैं। अतः ये साधक के आत्मोत्कर्ष में बाधक नहीं हैं। इसीलिए आस्रव-तत्त्व में पुण्यास्रव को कोई स्थान नहीं दिया गया है। आस्रव के पाँच, बीस, बयालीस भेदों में पुण्यास्रव का कोई भेद नहीं हैं। ये सभी पापास्रव से, पाप प्रवृत्ति से ही सम्बन्धित हैं।
आस्रव से बीस और बियालीस भेद आस्रव के मूल पाँच भेदों के ही विस्तार हैं। आस्रव के पांच भेद हैं मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग।
आस्रव के निरोध से संवर होता है। इन पाँचों आस्रवों के निरोध से पांच संवर होते हैं, यथा-मिथ्यात्व आस्रव के निरोध से सम्यक्त्व संवर होता है। सम्यक्त्व की उपलब्धि के समय समस्त पाप प्रकृतियों का अनुभाग चतु:स्थानिक से घटकर
आस्रव-संवर तत्त्व
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