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कर्म के अनुभाग में वृद्धि होती है और कषाय की कमी से कर्म के अनुभाग में कमी होती है। जैसा कि कहा हैतिव्वो असुहसुहाणं संकेसविसोहिओ विवजयउ।
'कर्म-ग्रंथ भाग ५, गाथा ६३ अर्थात् अशुभ (पाप) प्रकृतियों का तीव्र रस (अनुभाग) संक्लेश (कषाय की वद्धि) से और इसके विपरीत शुभ (पुण्य) प्रकृतियों का तीव्र रस (अनुभाग) विशुद्धि (कषाय की कमी) से होता है। इस सूत्र से यह स्पष्ट है कि केवल पाप प्रकृतियों के अनुभाग में वृद्धि का हेतु कषाय है। पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग में वृद्धि का हेतु कषाय नहीं है, अपितु इसके विपरीत है अर्थात् कषाय में जितनी कमी होती जाती है उतना पुण्य कर्मों का अनुभाग बढ़ता जाता है। यही कारण है कि समस्त सम्यग्दृष्टि जीवों पुण्य के अनुभाग का बंध, उदय व सत्ता ये सब चतुः स्थानिक ही होते हैं, इससे न्यून नहीं होते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव के चारित्र की क्षपक श्रेणी में जब भाव पूर्ण विशुद्ध हो जाते हैं तो उसे अंतर्मुहूर्त में केवलज्ञानकेवलदर्शन होने वाला होता है। ऐसे उत्कृष्ट साधना के साधक जीव का यही चतुःस्थानिक अनुभाग बढ़कर उत्कृष्ट हो जाता है। समस्त केवलज्ञनियों के उनकी पुण्य प्रकृतियों को अनुभाग सदैव उत्कृष्ट ही होता है। उनका यह अनुभाग कभी भी क्षीण व अनुत्कृष्ट नहीं होता है।
अभिप्राय यह है कि जैन दर्शन में तत्वों का विवेचन साधना को दृष्टि में रखकर किया गया है और साधना में आत्मा का पतन करने वाला पाप ही त्याज्य होता है, आत्मा के पवित्र करने वाला पुण्य त्यात्य नहीं है। अतः जैन दर्शन में आस्रव तथा संवर तत्त्व में पाप के आस्रव व संवर को ही ग्रहण किया गया है, पुण्य के आस्रव व संवर को नहीं। यही कारण है कि आस्रव के बियालीस एवं संवर के सत्तावन भेद पाप से ही सम्बन्धित है इनमें एक भी भेद पुण्य से सम्बन्धित नहीं है। इस विषय का विशेष विवेचन प्रस्तुत (आस्रव-संवर तत्त्व) पुस्तक में 'आस्रवसंवर तत्त्व का आधार', 'कषाय की कमी से पुण्यास्रव और कषाय की वृद्धि से पापास्त्रव', 'शुभ योग संवर क्यों, प्रकरणों में किया गया है। इन्हीं का विस्तृत विवेचन लेखक की 'पुण्य-पाप तत्त्व' पुस्तक में देखा जा सकता है।
साधक के लिए पाप ही त्याज्य है, पुण्य नहीं। इसीलिए जैन दर्शन में पाप के आस्त्रव के निरोध को ही संवर कहा है, पुण्य के आस्रव के निरोध को संवर नहीं
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जैनतत्त्व सार