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व अखण्ड-अव्याबाध रस एवं प्रीति में नित-नूतन अनंत रस है अर्थात् अक्षयअव्याबाध-अनंत सुख की प्राप्ति है। तात्पर्य यह है कि सद्प्रवृत्ति मुक्ति वह अक्षयअव्याबाध अनंत सुख की प्राप्ति में सहायक है बाधक नहीं।
प्राक्कथन (लेखक की मूल पुस्तक 'आस्रव-संवर तत्त्व' पुस्तक में उद्धृत)
- कन्हैयालाल लोढ़ा जैन धर्म का लक्ष्य मुक्ति प्राप्त कराना है। मुक्ति में पाप बाधक है। अतः मुक्ति-प्राप्ति के लिए पाप का त्याग करना अनिवार्य है, इसलिए जैन दर्शन में समस्त तात्त्विक विवेचन पाप को दृष्टि में रखकर ही किया गया है, पुण्य की दृष्टि से नहीं किया गया है। कर्म का शुभत्व-अशुभत्व उसके शुभ-अशुभ फल पर ही निर्भर करता है। जिस कर्म का फल अशुभ मिलता है उसे अशुभ व पाप कर्म कहा है। जिस कर्म का फल शुभ मिलता है उसे शुभ व पुण्य कर्म कहा गया है। पुण्य कर्म से जीव को किसी भी प्रकार की हानि नहीं होती, आत्मा के किसी भी गुण का घात नहीं होता है, अत: पुण्य कर्म को अघाती कर्म कहा है यदि पुण्य कर्म से जीव को किसी भी प्रकार की हानि होती, आत्मा के स्वाभाविक गुणों का अंश मात्र भी घात होता तो इसे देश-घाती कर्म कहा जाता, अघाती नहीं कहा जाता।
कर्म सिद्धान्त में कर्म फल देने वाली शक्ति को अनुभाग या अनुभाव कहा है और इस अनुभाग के सर्जन (आस्रव) तथा बंध का कारण कषाय को कहा है। यथा 'ठिदि अणुभाग कसायदो होति', (गोम्मटसार कर्मकांड, गाथा २५७) अर्थात् स्थिति और अनुभाग बंध कषाय से ही होता है। पन्नवणा सूत्र के १४ वें पद में आठों ही कर्म-प्रकृतियों के बंध का कारण क्रोध, मान, माया व लोभ कषाय को बताया गया है। यह सूत्र पाप कर्मों पर ही लागू होता है, पुण्य कर्मों पर नहीं। कारण कि क्रोध कषाय में कमी से सात वेदनीय, मान कषाय की कमी से उच्च गोत्र, माया कषाय की कमी शुभ नाम कर्म और लोभ कषाय की कमी व क्षय से देवायु नामक पुण्य कर्म प्रकृतियों का बंध होता है। अतः समस्त पुण्य-प्रकृतियों के आस्रव का कारण कषाय की कमी व क्षय है। पाप और पुण्य कर्म का फल उनके अनुभाग से मिलता है। कर्म के अनुभाग में जितनी वृद्धि होती है उतना ही उसका फल अधिक मिलता है। कर्म अनुभाग में जितनी कमी होती है उसका फल उतना ही कम मिलता है। कर्म के अनुभाग का कारण कषाय को कहा है। कषाय की वृद्धि से
आस्रव-संवर तत्त्व
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