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________________ चरम सीमा पर पहुँचने पर वह फट जाता है। यही उदाहरण दान, दया, करुणा, अनुकम्पा, सेवा, वात्सल्य, मैत्री-भाव आदि शुभ प्रवृत्तियों पर भी चरितार्थ होता है। जैसे-जैसे इन शुभ प्रवृत्तियों की वृद्धि होती जाती है वैसे ही वैसे कषाय, राग या मोह का पतलापन बढ़ता जाता है। दान, दया, करुणा, अनुकम्पा, सेवा वात्सल्य व मैत्री निस्वार्थ आत्मीयभाव के प्रकटीकरण के ही विभिन्न रूप हैं। अहंभाव मोह का रूप है। जितना अहंभाव प्रगाढ़ होगा, वह व्यक्ति उतना अपने ही स्वार्थ में सीमित होगा, उसमें आत्मीय भाव (निस्वार्थ प्रेम) की उतनी ही कमी होगी। ___ आत्मीय भाव और मोह में अन्तर है। मोह में इन्द्रिय एवं मन से सम्बन्धित सुख भोग की कामना रहती है, प्रतिफल की भावना रहती है। इससे पदार्थ व व्यक्ति के साथ ममत्वभाव उत्पन्न होता है और वह इसके सम्बन्ध में आबद्ध हो जाता है। सम्बन्ध ही बन्धन है, कर्मबंध का कारण है, जो दुःख का मूल है। आत्मीय भाव में अपने सुख या सुख की सामग्री को वितरण करने की, सुख प्रदान करने की भावना रहती है। दान का प्रतिदान या प्रतिफल पाने की भावना नहीं रहती है। दान, दया, करुणा, वात्सल्य और अनुकम्पा ये ऐसे ही निःस्वार्थ आत्मीयभाव को प्रकट करने वाली सेवा की प्रवृत्तियाँ हैं जिनमें अपने राग रूप सुख को घटाने एवं दूसरों के दुःख निवारण को भावना रहती है जो राग को पतला करने में सहायक हैं। इसलिए सेवा अर्थात् वैयावृत्त्य की प्रवृत्ति को आगम में निर्जरा अर्थात् कर्म क्षय का कारण कहा है। कैसे चलना, कैसे बोलना, कैसे आहार ग्रहण करना, प्राप्त सामग्री का उपयोग कैसे करना, शरीर से निकले मूत्रादि मलों को कैसे छोड़ना आदि-पाँच समितियाँ प्रवृत्ति रूप ही हैं। ये सब शरीर से सम्बन्धित प्रवृत्तियाँ हैं। आगम में विधिपूर्वक की गई ये प्रवृत्तियाँ संयम या संवर कही गई हैं। कारण कि संयम पालन व मुक्तिप्रप्ति में शरीर, इन्द्रिय व मन आदि उपकरण माध्यम रूप साधन हैं। जो मुक्ति के साधन हैं, वे साधना-मार्ग अर्थात् संवर-निर्जरा के ही कार्य हैं। शरीर और मन के विद्यमान रहते हुए इनकी कुछ न कुछ प्रवृत्ति अवश्यंभावी है। उस प्रवृत्ति को भोग में लगाना पाप है और संयम में लगाना संवर-निर्जरा है, कर्म क्षय का कारण है। निवृत्ति मात्र मुक्ति की कारण हो, साधना का मार्ग हो ऐसी बात नहीं है। यदि कोई उपवास इसलिए करता है कि भूखे रहने से आमाशय की (जठराग्नि की) अग्नि प्रदीप्त होगी जिससे भोजन अधिक स्वाद लेकर खाया जा सकेगा तो यह आस्रव-संवर तत्त्व [91]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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