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एदे दहप्पयारा पावकम्मस्स णासया भणिया। पुण्णस्स य संजणया, परं पुणत्थं ण कायव्वा ॥
- कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ४० धर्म के दस भेद, पाप, कर्म का नाश करने वाले तथा पुण्य कर्म का उपार्जन करनेवाले कहे हैं, परन्तु इन्हें पुण्य के लिए नहीं करना चाहिए। इससे स्पष्ट है कि क्षमा, सरलता आदि धर्मो से पाप कर्मों का ही क्षय होता है पुण्य कर्मो का नहीं। अपितु इनसे पुण्य कर्मों का उपार्जन होता है। 'विशुद्धि-संकेशाङ्गं चेत् स्व-परस्थं सुखासुखम् व्यर्थस्तवार्हतःः॥
- देवागम कारिका, १५ आचार्य श्री समन्तभद्र के मत में सुख-दुःख अपने को हो या दूसरे को हो, वह यदि विशुद्धि का अंग हो तो पुण्यास्रव का और संकेश का अंग हो तो पापास्रव का हेतु है। यदि वह दोनों में से किसी का भी अंग नहीं है तो वह व्यर्थ है, निष्फल है।
सम्मत्तेण सुदेण य विरदीए कसायणिग्गहगुणेहिं। जो परिणओ सो पुण्णो ........॥
- मूलाचार, २३४ सम्यक्त्व, श्रुतज्ञान, विरति, कषायनिग्रह रूप गुणों से परिणत आत्मा पुण्य स्वरूप है। जैनागम में सम्यक्त्व, विरति, कषायनिग्रह आदि गुणों को जीव का स्वभाव व संवर कहा है। अतः जहाँ संवर है वहाँ पुण्य है। संवर पाप के निरोध व क्षय का ही हेतु है, पुण्य के निरोध व क्षय का नहीं। शुभ योग मोक्षरूपी फल को प्रदान करने वाला है। जैसा कि कहा है
प्रतिवर्तनं वा शुभेषु योगेषु मोक्षफलदेषु। निःशल्यस्य यतेर्यत् तद्वज्ज्ञेयं प्रतिक्रमणम्॥
- आवश्यक सूत्र प्रतिक्रमण का स्वरूप बतलाते हुए इस श्लोक में कहा गया है कि शल्य रहित मुनि का मोक्षफल को प्रदान करने वाले शुभयोग में उत्तरोत्तर वर्तन करना प्रतिक्रमण है। यहाँ भी शुभयोग को मोक्षरूपी फल प्रदान कारने वाला कहा गया है।
आस्रव-संवर तत्त्व
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