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पाप का अवरोध व निरोध होने पर पुण्य स्वतः होता है। प्राणी पाप में जितनी कमी करता है, उतनी ही पुण्य में वृद्धि होती है। अशुभयोग पाप है, जिससे पाप का आस्रव व बंध होता है। अशुभयोग में कमी होने से शुभयोग होता है। जिससे अशुभयोग-जन्य पापकर्मों के आस्रव का निरोध होता है, नवीन पापकर्मों का बंध रुकता है तथा पूर्व में बंधे पाप कर्मों का अपवर्तनरूप क्षय होता है। जैसे सातावेदनीय के आस्रव से असातावेदनीय पाप कर्म का, उच्च गोत्र से नीच गोत्र पाप कर्म का, शुभ नाम कर्म से अशुभ नाम कर्म की पाप प्रकृतियों के स्थिति एवं अनुभाग का घात होता है। इस प्रकार पुण्य के आस्रव से पाप कर्मों के आस्रव का निरोध तथा पूर्व में बंधे पाप कर्मों का क्षय होता है, जिससे आत्मा मुक्ति के पथ पर आगे बढ़ती है। इस प्रकार पाप के आस्रव के निरोध का हेतु होने से शुभयोग को संवर कहा है। शुभयोग से पाप कर्मों के आस्रव का निरोध तो होता ही है, साथ ही घाती कर्मों का क्षय भी होता है। यथा
गरहणयाए णं अपुरक्कारंजणयइ।अपुरक्कारगए णं जीवे अपसत्थेहितो जोगे हिंतो नियत्तेइ, य पडिवज्जइ। पसत्थजोगपडिवन्ने य णं अणगारे अणंतघाइपज्जवे खवेइ। उत्तरा.अ. २९ सूत्र ७। साधक गर्हणा (गुरु के समक्ष अपने दोष प्रकट करने) से अपुरस्कार (आत्म-नम्रता) पाता है। आत्म-नम्रता से अप्रशस्त योगों से निवृत होकर प्रशस्त योगों को प्राप्त करता है। प्रशस्त योगों को प्राप्त अनगार ज्ञानावरणादि घाती कर्मो का क्षय करता है।
उत्तराध्ययन सूत्र के. २९ वें अध्ययन में तिहत्तर बोलों की पृच्छा की गई है। इनमें से साधना की प्रत्येक क्रिया से पुराने पाप कर्मों का क्षय, नवीन पाप कर्मों के बंध का निरोध एवं पुण्य कर्मों का उपार्जन होना कहा गया है। यहां इस सातवें बोल में भी कहा गया है कि साधक गर्हा (गुरु के समक्ष अपने दोष प्रकट करने) से अप्रशस्त योगों से निवृत्त होता है और प्रशस्त योगों में प्रवृत्त होता है तथा शुभ योगों से घाती कर्मों का क्षय होता है। घाती कर्मों का क्षय होने से पूर्ण निर्दोषता आती है, जिससे केवल ज्ञान, केवल दर्शन, क्षायिक चारित्र आदि समस्त आत्मिक गुणों की उपलब्धि होती है और साधक मुक्ति को प्राप्त करता है।
उत्तराध्ययनसूत्र के उपर्युक्त भगवद्वचन से स्पष्ट है कि शुभ योग से अघाती पाप कर्म ही नहीं, घाती कर्म भी क्षय होते हैं एवं मुक्ति की प्राप्ति होती है।
पाणिवह-मुसावाया अदत्त-मेहुण परिग्गहा विरओ। राइभोयण विरओ, जीवो भवइ अणासवो॥
- उत्तराध्ययन सूत्र, अ. ३० गाथा २
आस्रव-संवर तत्त्व
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