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श्रमण-संस्कृति
तथा आर्थिक क्षेत्र में प्रगति करने वाले समूह की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व कर रही थी ।
बौद्ध साहित्य में समुद्री व्यापार के प्रति अनुकूल दृष्टिकोण दिखता है। यह स्वाभाविक ही था कि वैश्य वर्ग बौद्ध धर्म को प्रोत्साहन देता। सांची स्तूपों में वर्णित दृश्यों से स्पष्ट होता है कि वैश्य वर्ग ने बौद्ध धर्म को अपनाकर तथा दान आदि देकर विशेष प्रोत्साहन दिया । वैश्य वर्ग के लिए बौद्ध साहित्य में 'गहपति', 'सेट्ठि' आदि शब्द मिलते हैं। 'गहपति' शब्द के लिए कहा गया है कि यह ब्राह्मण-क्षत्रिय के लिए भी प्रयुक्त किया जाता था । किन्तु बौद्ध - साहित्य में इसका प्रयोग केवल वैश्य वर्ग के लिए ही हुआ है। वैश्य वर्ग उस युग का अत्यन्त समृद्धशाली और सम्पन्न वर्ग था । 'सेट्ठि' अथवा 'श्रेष्ठि' इस वर्ग का धनी व्यक्ति होता था जो अपने व्यापार और वाणिज्य के कारण प्रमुख होता था । वह समय-समय पर राजा और श्रेष्ठियों की सहायता भी करता था । एक श्रेष्ठि ने भिक्षु संघ को 80 करोड़ कार्षापण सहायतार्थ दान दिया था। ऐसे श्रेष्ठियों के भी संदर्भ मिलते हैं जो राज सभाओं के सदस्य होते थे तथा वहाँ की कार्य-विधियों में अपना सहयोग प्रदान करते थे । रूपया उधार देना, ब्याज लेना, उद्योग व्यापार में धन लगाना उनका पेशा था।' इस वर्ग ने अपने प्रयास से इस युग की आर्थिक संरचना को ही बदल डाला ।
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बौद्ध धर्म को प्रारम्भ से ही राजाओं और व्यापारियों का संरक्षण तथा प्रोत्साहन मिलना प्रारम्भ हो गया था। धर्म का प्रचार करने वाले विश्व के प्रथम प्रचारक तापस और भल्लिक व्यापारिक वर्ग से थे।" सारिपुत्त, मोग्गल्लायन जैसे युवक ब्राह्मण, आनन्द, राहुल, अनिरुद्ध जैसे कुलीन कुल के सदस्य, यश जैसे लोग जो बड़े बड़े व्यापारियों और नगरपरिषद् के गणमान्य व्यक्तियों के पुत्र थे। ये सब तत्कालीन समाज के अत्यन्त कुलीन वर्गों के थे जो बुद्ध के उपदेशों तथा शिक्षाओं से प्रभावित थे । महान श्रेष्ठि अनाथपिंडिक सावात्थि (श्रावस्ती) के निकट राजा जेतकुमार से 54 करोड़ स्वर्ण मुद्राओं में जेतवन विहार खरीद कर बुद्ध को उपहार स्वरूप दिया।" ये कुलीन तथा