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बौद्ध धर्म की शिक्षाओं का प्राचीन भारत की आर्थिक व्यवस्था...
व्यापारी वर्ग बुद्ध की शिक्षाओं का लाभ उठाकर, जो उनके व्यापारिक आवश्यकताओं के अनुकूल थी, आर्थिक संरचना को आयाम दे रहा था ।
बुद्ध ने बौद्ध संघ के संचालन के लिए बहुत से नियम बनाये । बुद्ध ने संघ के अन्दर सम्पत्ति सम्बन्धी साम्यवादी सिद्धान्तों को लागू किया । मजूमदार का कथन है .. बौद्ध संघ में व्यक्ति को सारे संघ में विलीन कर दिया जाता था।........ ..बुद्ध के इस धर्मादेश में कि प्रत्येक वस्तु संघ की सम्पत्ति है, किसी भिक्षु विशेष की नहीं।12 बुद्ध संघ के अन्दर व्यक्तिगत सम्पत्ति के पक्ष में नहीं थे, यदि किसी भिक्षु को सोना या चांदी दान में मिलता था तो उसे उस दान को संघ का दे देना होता था। संघ के इन नियमों का गहनता से विचार किया जाये तो पता चलता है कि व्यक्तिगत सम्पत्ति को संघ में मान्यता न देकर भिक्षुओं को पथभ्रष्ट होने से रोका गया क्योंकि अर्थ की अधिकता नैतिक पतन का कारण बन सकती थी । बुद्ध ने संघ में सम्पत्ति सम्बन्धी, साम्यवादी सिद्धान्त लाकर संघ में समानता के सिद्धान्त को डाला। जिससे लोगों का विश्वास संघ के प्रति बढ़ता गया। इस प्रकार अर्थ सम्बन्धी यह सिद्धान्त बौद्ध धर्म के विकास में भी सहायक सिद्ध हुआ ।
इस प्रकार उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि बौद्ध धर्म के सिद्धान्त तत्कालीन आर्थिक जीवन को अत्यधिक प्रभावित किया जिसके कारण समाज का स्वरूप ही बदलने लगा । बुद्ध की शिक्षाओं ने संकुचित आर्थिक सिद्धान्तों को बदल दिया । व्यापार एवं उद्योग के क्षेत्र विस्तृत हो गये और नई आर्थिक एवं सामाजिक मान्यताओं को स्थान मिला।
संदर्भ
1. प्रसाद, ईश्वरी प्राचीन भारतीय संस्कृति, कला, राजनीति, धर्म दर्शन, पृ० 99 2. अंगुत्तरनिकाय, भाग
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3, पृ० 70
3. जातक, भाग 4, 463/559
4. फिक, आर० सोशल आर्गनाइजेशन इन नार्थ-ईस्ट इंडिया, पृ० 353
5. मिश्र, जयशंकर, प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास, पृ० 93
6. महावग्ग, 8.1.16