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बौद्ध धर्म एवं दलित चेतना निर्वाण प्राप्त कराना चाहता है और सभी दुःखी प्राणियों के उद्धार में लगा रहता है। उसका सबसे बड़ा गुण महा करूणा है। बुद्ध वहीं प्राणी बन सकता है जिसमें प्रज्ञा एवं महाकरूणा का सामंजस्य हो। आर्यगयाशीर्ष में एक प्रश्न के उत्तर में मंजुश्री बोधिसत्व के लिए महाकरूणा को परम आवश्यक तत्व बताता
आर्य धर्म संगीत के बोधिकारक धर्मों में महाकरुणा को इसीलिए सर्व प्रथम स्थान दिया गया है। इस ग्रन्थ का कथन है कि बोधिसत्व को एक ही धर्म का स्वागत करना चाहिये और वह धर्म है - महाकरुणा। यह करुणा जिस मार्ग से जाती है, उसी मार्ग से अन्य समस्त बोधिकारक धर्म चलते हैं।' महाकरुणा ही बोधिसत्व को बुद्ध बनाने में प्रधान कारण होती है। वह विचार करता है कि जब उसे उसके एवं दूसरे के दुःख एवं भय समान रूप से अप्रिय हैं तो वह अपनी ही रक्षा क्यों करे और दूसरों की क्यों न करे। आचार्य शान्तिदेव का यह कथन नितान्त सत्य है-10
यदामम परेषां च भयं दुःखं च न प्रियम्।
तदात्मनः को विशेषो यत् तं रक्षामि नेतरम्।। आचार्य शान्तिदेव का यह कथन तत्कालीन समाज के दबे-कुचले लोगों के मन एवं दबाये गये मान हेतु औषधि स्वरूप सिद्ध हुआ होगा। उन्होंने महसूस किया होगा कि उनको भी निर्वाण सुलभ हो सकता है, उन्हें भी अपने हित में सोचने का अधिकार है, वह मात्र दूसरों की सम्पत्ति नहीं है, अपितु चैतन्य प्राणी है जो सभी व्यक्तियों के समान जीवन के समस्त बुनियादी अधिकारों के हकदार हैं। यदि वैदिक काल से बुद्ध के युग तक की दीर्घ ऐतिहासिक परम्परा का सिंहावलोकन किया जाय तो इसके पूर्व बोधिसत्व की इस उदात्त अवधारणा की आवृत्ति दिखायी नहीं पड़ती।
शान्ति रक्षित के कथन के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट है कि बोधिसत्व के जीवन का उद्देश्य जगत का परम मंगल साधन होता है। उसका स्वार्थ इतना विस्तृत रहता है कि उसके स्व की परिधि के भीतर जगत के समस्त प्राणी आ जाते हैं। विश्व में पिपीलिका से लेकर हस्तीपर्यन्त जबतक एक भी प्राणी दुःख का अनुभव करता है तबतक वह अपनी मुक्ति नहीं चाहता। बोधिचर्यावतार में