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श्रमण-संस्कृति बोधिसत्व की उद्घोषणा है कि - 'मैं यात्रियों के लिए सार्थवाह बनूंगा, पार जाने वालों के लिए नौका बनूंगा, प्रकाश चाहने वालों के लिए दीपक बनूंगा, दास चाहने वालों के लिए दास बनूंगा, अनाथों का नाथ बनूंगा इत्यादि।' ।
बोधिसत्व को यह अवधारणा उपनिषदों में वर्णित प्रबुद्ध, गीता के स्थितप्रज्ञ एवं पुरुषोत्तम तथा ईसाई धर्म के ईसामसीह की अवधारणा से तुलनीय है क्योंकि वह दुःख से पीड़ित मानव जाति को दुःखों से मुक्ति कराने में उनकी सहायता करता है। लोक-कल्याण ही बुद्धत्व का आवश्यक अंग है। महायान के अनुसार बोधिसत्व का जीवन करुणा तथा प्रज्ञा से संचालित होता है। जातक कथाओं में बार-बार कहा गया है कि बोधिसत्व ने लोक कल्याण हेतु पृथ्वी पर बार-बार जन्म लिया है।
महायान धर्म में बोधिसत्व के लिए परिवर्त का सिद्धान्त स्वीकार किया गया जिसमें बोधिसत्व अपने पुण्य कर्मों द्वारा दूसरों को दुःखमुक्त करता है और उनके पापमय कर्मों को स्वयं भोगता है। इससे स्पष्ट है कि बोधिसत्व अपने को तबतक मुक्त नही समझता जबतक संसार के अंतिम व्यक्ति की दुःख-निवृत्ति नहीं हो जाती है। इससे इस अवधारणा की स्थापना होती है कि प्राणीमात्र की दुःखनिवृत्ति के लिए प्रयासरत होना ही वास्तविक धर्म है। परिवर्त के इस सिद्धान्त ने बौद्ध धर्म के कर्म की अवधारणा में क्रान्तिकारी परिवर्तन किया। इसने कर्म के नियम की कठोरता को, जिसमें व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में अपने किये हुए कर्मों के फल को अवरुद्ध नहीं कर सकता, शिथिल कर दिया। इस नवीनता ने अपने पुण्यों को दूसरों को देने तथा दूसरों के पापों को स्वयं लेने के सिद्धान्त ने बौद्ध धर्म में एक विशेष आकर्षण पैदा किया। शताब्दियों से धार्मिक एवं सामाजिक प्रतिबन्धों से पीड़ित दलित समाज ने इसे अपनी मुक्ति के एक स्वर्णिम अवसर के रूप में ग्रहण किया
होगा।
___ भौतिक दृष्टि से गंगाघाटी में पूर्ण विकसित द्वितीय नगरीय क्रान्ति के उदय के बाद वह युग था जिसमें भगवान बुद्ध द्वारा भिक्षु-भिक्षुणियों तथा जन साधारण के लिए दी गयी देशना के परिप्रेक्ष्य में इस सामान्य धारणा का आविर्भाव हुआ कि उनके द्वारा प्रवर्तित बौद्ध धर्म करुणामिश्रित प्रेम पर