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बौद्ध धर्म एवं दलित चेतना
त्रिपिटक में प्राप्त बुद्ध वचनों से यह निष्कर्ष निकलता है कि बुद्ध के समकालीन भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था का आधार जन्म माना जाता था। इसीलिए तथागत ने इसका घोर विरोध किया। उन्होंने जिस सामाजिक पुनरूत्थान का श्रीगणेश किया और उसे आन्दोलन का स्वरूप किया, वह निःसन्देह बहुजन हिताय था। उनके द्वारा उपदेशित निर्वाण की अवधारणा वर्णगत न होकर सर्वगत थी। इस तथ्य की प्रतिष्ठापना करते हुए तथागत ने सामाजिक जीवन में समानता के सिद्धान्त को मुखरित किया। भगवान बुद्ध की समानता की यह अवधारणा सर्वथा नवीन एवं तत्कालीन वंशानुगत वर्ण व्यवस्था के सर्वथा प्रतिकूल थी। तत्कालीन समाज जिन रूढ़ियों से ग्रस्त एवं त्रस्त था, उन पर तथागत ने अपने व्यवहारिक एवं सैद्धान्तिक उपदेशों से प्राणान्तक प्रहार किया। वर्ण व्यवस्था के संबंध में उन्होंने स्पष्टतः यह कहा कि ब्राह्मण एवं क्षत्रिय कुलों में पैदा होने मात्र से ही कोई ब्राह्मण एवं क्षत्रिय नहीं बन सकता। उन्होंने बड़ी सहजता के साथ ब्राह्मण को परिभाषित करते हुए कहा कि 'ब्राह्मण वह है जो पाप से मुक्त हो, मिथ्याभिगामी न हो, समुज्ज्वल चरित्रवाला हो, संयमी हो, वेदान्त का ज्ञाता हो, ब्रह्मचर्यव्रती हो, ब्रह्मवादी, समदर्शी, समत्ववादी एवं अद्वितीय हो। तथागत की इस परिभाषा में नैतिकता एवं आध्यात्मिकता का वर्चस्व व्यवहारिक धरातल पर साकार हुआ है, क्योंकि उन्होंने अपनी देशना में जन्मना ब्राह्मणत्व की परम्परा को सिद्धान्त एवं व्यवहार की परिधि से बाहर कर दिया। स्पष्ट है कि तथागत की वर्ण व्यवस्था आचरणाधृत थी न कि जन्मनाधृत और उनका यही विचार उन्हें सामाजिक क्रान्तिकारी के रूप में स्थापित करता है। उनके इस क्रान्तिकारी व्यवस्था की पृष्ठभूमि में प्रतिपादित 'मध्यम प्रतिपदा' सिद्धान्त के दर्पण में झांकने पर यह चित्र प्रतिबिम्बित होता है कि तथागत की दृष्टि से पशुबलि, कर्मकाण्डपरक जड़ता, अनुष्ठान एवं यज्ञ विभेदपरक समाज, सामाजिक अव्यवस्था तथा अन्याय के जनक ही नहीं अपितु शोषण की अविच्छिन्न प्रक्रिया के प्रेरक तत्व भी थे।'
बौद्धधर्म का कर्म सिद्धान्त बौद्धधर्म दर्शन का सार एवं मूल तत्व है। बुद्ध ने सभी प्रकार की सुख समृद्धि के लिए कर्म के महत्व को प्रतिपादित किया। चूलकम्मविभंगसुत्त में उन्होंने कर्म को ही सबकुछ - दायाद, योनि,