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श्रमण-संस्कृति किया तथा रायल एशियाटिक सोसाइटी के समान 1843 में पश्चिम भारतीय शैलगृहों पर एक विस्तृत निबन्ध प्रस्तुत किया। 1845 में मद्रास आर्मी के कप्तान राबर्ट गिल को चित्रों की प्रतिलिपि बनाने के लिए नियुक्त किया गया
और कई वर्षों तक श्रम करके उसने अनेक चित्रों की अति सुन्दर तेल प्रतिलिपियां बनाकर इंग्लैण्ड भेजी। इनमें से पांच को छोड़कर सभी चित्र क्रिस्टल पैलेस कम्पनी, सिडेनहम द्वारा 1866 में आयोजित एक प्रदर्शनी में आग लग जाने के कारण नष्ट हो गये। गिल ने इन प्रतिलिपियों के फोटोग्राफ 'राक टेपल्स ऑफ अजंता एंड एलोरा' (1862) तथा 'वन हंड्रेड स्टीरियोस्कोपिक इलस्ट्रेशंस ऑफ आर्किटेक्चर एंड नैचुरल हिस्ट्री' (1864) नामक पुस्तकों में प्रकाशित किये।
सातवाहन काल में दक्खिन में बौद्ध धर्म अपने चरम उन्नति अवस्था में था और महाराष्ट्र के कुछ स्थान बौद्ध धर्म के स्थविरवाद और महासंघिक सम्प्रदायों के विभिन्न निकायों के गढ़ थे। इस काल में सातवाहनों की प्रेरणा के फलस्वरूप अजंता, भाजा, कार्ले, पीतलखोरा, कोण्डाने, जुन्नार, कान्हेरी इत्यादि विभिन्न स्थानों में बौद्ध भिक्षुओं के निवास के लिए पर्वतों को काटकर सैकड़ों विहारों और चैत्यगृहों का निर्माण किया गया। अजन्ता के हीनयान सम्प्रदाय से सम्बद्ध शैलगृह इसी काल के हैं। ईस्वी तृतीय शताब्दी के उत्तरार्द्ध में विदर्भ में वाकाटक वंश का उदय हुआ। सम्पूर्ण विदर्भ तथा उससे लगा हुआ मध्यप्रदेश एवं मराठवाड़ा का एक बड़ा भू-भाग वाकाटकों के अधीन था। अभिलेखीय साक्ष्यों से प्रमाणित है कि अजन्ता का प्रदेश भी वाकाटक राज्य के अंतर्गत था। वाकाटक काल के अंतिम चरण में अजन्ता के शैलगृहों के निर्माण का कार्य, जो लगभग पिछली तीन शताब्दियों से अवरूद्ध पड़ा था, एक नवीन चेतना और वेग के साथ पुनः आरम्भ हुआ। सोलहवीं गुफा के बरामदे के बाहर बायीं ओर के दीवार के अंतिम सिरे पर उत्कीर्ण एक लेख से पता चला है कि स्तम्भों, चित्रभित्तियों, मूर्तियों इत्यादि से अलंकृत इस शैलगृह का निर्माण हरिषेण के अमात्य वराहदेव ने कराया था। अजंता की सत्रहवीं गुफा के बरामदे के भित्ति पर उपलब्ध एक लेख के अनुसार हरिषेण में मांडलिक रविसांब ने एक विहार तथा गंधकुटीर बनवाकर बौद्ध संघ को अर्पित की थी। पुलकेशी के राज्यकाल में ई० 641 के लगभग चीनी यात्री ह्वेनसांग महाराष्ट्र में