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बौद्ध धर्म का वैश्विकरण धर्म इसी ऊर्वर भूमि में अवतरित हुए और उनकी वैचारिक उद्भावनाएँ ईसा पूर्व पाँचवी से छठी शताब्दी में नवीन चेतना के रूप में प्रतिष्ठित हुई। इनमें से भारत में प्रार्दुभूत बौद्ध धर्म व्यापक मानवीयता, सहनशीलता, करुणा, अहिंसा सत्यवादिता एवम् आदर के साथ पूरे एशिया खण्ड में आरम्भ से ही होने लगा। इस धर्म में किसी सद्विचार का विरोध नहीं था, किसी जीवधारी (सजीव प्राणी) का अहित चिन्तन नहीं था अपितु समन्वयात्मक, विश्वकल्याण की भावना निहित थी। प्राचीन काल से यह भावना अनजानी नहीं थी किन्तु कुछ शताब्दीयों के बीच जीवन का नेतृत्व राजाओं और पुरोहितो श्रेष्ठियों के अधीन हो गया था। ये लोग शक्ति, धन और देवपूजा द्वारा अपने भोग और सुविधाओं को जुहाना ही जीवन का प्रमुख उद्देश्य मानने लगे थे।
इसी समय जन-सामान्य के कष्ट से पीड़ित गौतम बुद्ध ने युवावस्था में व्यक्तिगत सुख-सुविधा से मुहँ मोड़कर मानवता के उद्धार में ही अपनी शान्ति एवं निर्वाण प्राप्ति की सिद्धि की। कृतज्ञ जनता ने उनको अपना भगवान माना
और उनके अमृत वचनों को अपनी जीवन पद्धति में समाहित किया तथा आम जनता के साथ-साथ शासक भी इससे अछूते नहीं, अशोक मिलिन्द, शालिवाहन, कनिष्क, हर्षर्वधन, और अनेक विदेशी यात्री जैसे महान शासको ने धन, पद, वैभव, मद, मोह को त्याग कर लोकहितकारी, पवित्र जीवन बिताने लगे। भारत का यह धर्म अहिंसा का सन्देश यूनानी, तूरानी, चीनी, एवम् जापानी शासकों ने भी बौद्ध धर्म को सहर्ष स्वीकार किया। इस आधुनिक युग में भी बौद्ध धर्म को मानने वालो की संख्या अधिक है और वे सब इस देश भारत को पूण्य भूमि मानते हैं।
मौर्य सम्राट अशोक ने अपने धर्म प्रचारकों के द्वारा इस धर्म को मध्य एशिया, पश्चिमी एशिया, और श्रीलंका, वर्मा, तिब्बत, मंगोलिया, चीन और जपान और इसे विश्व धर्म का रूप दिया। आज भी बौद्ध धर्म श्रीलंका वर्मा, भूटान, तिब्बत, सुमावा, जावा बोरनियो, चीन और जपान में बौध-धर्म प्रचलित है यह अपनी जन्म भूमि से तो लगभग समाप्त हो गया है, परन्तु दक्षिणी एशिया, दक्षिणी पूर्वी एशिया के देशों में अपने महत्वपूर्ण नैतिक उपदेशों एवम मार्गों के द्वारा समस्त जनमानस को प्रकाशित कर रहा है।