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बौद्ध धर्म का वैश्विकरण
इन्द्रजीत सिंह
छठी शताब्दी ई० पू० धार्मिक दृष्टि से क्रान्ति अथवा परिवर्तन का काल माना जाता है। इसी समय पहली बार वैदिक धर्म एवं समाज में व्याप्त कुरीतियों, कुप्रथाओं, छुआ-छूत, ऊँच-नीच आदि के विरुद्ध आन्दोलन उठ खड़ा हुआ। यह आन्दोलन कोई आकस्मिक घटना नहीं थी वरन यह चिरकाल से संचित हो रहे असन्तोष की चरम् परिणति थी। वैदिक धर्म के कर्मकाण्डों तथा यज्ञीय विधि-विधानों के विरोध में प्रतिक्रिया उत्तर वैदिक काल में ही प्रारम्भ हो चुकी थी। वैदिक धर्म की व्यवस्था नये सिरे से की गयी तथा यज्ञ
और कर्मकाण्डों की निन्दा करते हुए धर्म के नैतिक पक्ष पर अधिक बल दिया गया। संसार को 'नश्वर' बता कर आत्मा की अमरता के लिए बन्धन बताया गया इस विचारधारा का 'परिपक्व' रूप उपनिषदों में मिलता है। उपनिषद, यज्ञों तथा उनमें की जाने वाली पशुवलि प्रथा की कड़ी आलोचना करते है। इस काल में लोहे के उपकरणों के प्रयोग से कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई। ई० पू० छठी शताब्दी में वैदिक क्रान्ति के लिए तत्कालीन, सामाजिक, कारण तो उत्तरदायी ने ही वही आर्थिक निश्क्रिय हो चुकी थी वर्ण कठोर होकर जातियो में परिवर्तन हो चुके थे, समाज में ब्राह्मण वर्ण को सर्वोच्च स्थान प्राप्त हो चुका था। शेष सभी वर्णो का दर्जा निम्न था। शूद्रों की दशा अत्यंत दयनीय थी तथा उनके कोई अधिकार न थे।
इन्ही परिस्थितियों में बौद्ध धर्म की स्थापना गौतम बुद्ध ने की थी। विश्व में एशिया भूखण्ड ही ऐसा स्थल है जहाँ धर्मो और सम्प्रदायों का ठदगम हुआ है। साख्य-योग, जैन, बौद्ध, पारसी, यहूदी, ताओ, कन्फ्यूशियन जैसे