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पालि निकायों में व्यापार : संचालन एवं संगठन
379 उपभोग की वस्तुओं का व्यापार मुख्य रूप से स्थल मार्ग के जरिये ही किया जाता था। जातकों में स्थल मार्ग से व्यापार करने सम्बन्धी सूचनायें बहुत ज्यादा हैं। वाराणसी तत्कालीन व्यापारिक जगत का एक आकर्षक केन्द्र माना जाता था। प्रत्येक दिशा के व्यापारिक मार्ग यहाँ से होकर गुजरते थे। पूरब से पश्चिम जाने वाले मार्ग को जातकों में 'पुत्बन्ता अपरान्तं' कहा गया है। पूर्वी भारत का चम्या एक महान व्यापारिक केन्द्र था और यहीं से व्यापारियों का दल सुवर्ण भूमि के लिए प्रस्थान करता था। एक स्थल मार्ग इसे मिथिला से जोड़ता था। वाराणसी को एक व्यापारी का नाम कप्पट था जो मिट्टी के बर्तनों को खच्चर पर लादकर तक्षशिला जाता था। स्थल मार्ग से वाराणसी अपने समकालीन प्रसिद्ध व्यापारिक नगरों से जुड़ी हुई थीविदेह से गान्धार प्रदेश जाने वाला मार्ग भी था। यह मार्ग अधिकतर नदी मार्ग से होकर गुजरता था और वाराणसी होकर आगे जाता था। जातको में उत्तरापथ से तक्षशिला होकर एक लम्बा मार्ग जाता था जो मध्येशिया और पश्चिमेशिया के साथ भारत का संपर्क स्थापित करता थायह मार्ग राजपूताने की मरूभूमि (कन्धार) से • होकर गुजरता था तथा 60 योजन चौड़ा था
बुद्धकालीन अर्थव्यवस्था में औद्योगिक क्षेत्र में न्यूनायिक रूप में संगठन की एक स्थायी प्रवृत्ति का विकास हो चुका था, पर व्यापारियों एवं सौदागरों के समूह में इस प्रकार की संगठनात्मक प्रवृत्ति का प्रायः आभास ही दीखता है। इस काल में व्यापारियों के संगठन के मूल में वंश-परंपरा और व्यापारिक संस्थाओं में जेट्टक परम्परा की सूचना प्राप्त होती है। महाबणिज जातक से इस आशय की सूचना प्राप्त होती है कि अनके देशों के व्यापारी अपनी एक समिति जो संगठन का एक अस्थायी विकल्प है, बनाकर व्यापार करते थे। दुरूह मरूस्थल को पार करते समय बिना पानी के असीम कष्टों को झेलते हुए जब किसी महावृक्ष की छाया में आते थे तो अपनी थकान मिटाकर फिर आगे की यात्रा आरम्भ करते थे। संस्था या सगंठन का दायित्व उससे जुड़े व्यक्तियों के हितों की रक्षा करना होता है। पालि निकायों में ऐसे किसी भी संगठन का पता नहीं चलता। ऐसी स्थिति में व्यापार में लाभ अपनी क्षमता एवं परिस्थितियों पर निर्भर था। अपने माल का मूल्य भी व्यापारी स्वयं निश्चित करता था