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श्रमण-संस्कृति तथा अपनी सफलता से उत्साहित होकर वह समुद्र व्यापार योजना लेता जिसका उसकी माता इसलिए विरोध करती थी कि सामुद्रिक व्यापार करना सदा असुरक्षित होता था। फिर भी, इसमें क्षेत्रीय व्यापार की तुलना में अधिक लाभ होता था। इसलिए, कुछ साहसी व्यापारी अपनी नावों को माल से भरकर स्वर्णभूमि की यात्रा करते थे। सामुद्रिक व्यापार के लिए प्रस्थान करने वाले व्यापारियों के दल में पाँच सौ व्यापारियों का झुंड रहता था जिसे कभी-कभी लगातार सात दिनों तक यात्रा करने के पश्चात् भी किनारा दिखायी नहीं देता। उनकी नौकायें टूट जाती और सभी मगरमच्छों द्वारा लील लिये जाते थे। पिता के मरने के बाद ज्येष्ठ पुत्र नाविक बनकर सामुद्रिक मार्ग में अपने दल का नेतृत्व करता था। प्रतीत होता है कि समुद्र व्यापार करने वाले नाविकों की एक स्थायी परम्परा विकसित हो चुकी थी जो इस व्यापार में अपनी परिवारिक पृष्ठभूमि से प्रभावित होकर गहरी अभिरूचि का परिचय देते थे। अनेक कष्ट उठाते हुए जो धन कमाने में सफल होते थे वे वापस लौटकर सुखी जीवन व्यतीत करते थे।
सामुद्रिक व्यापार की तुलना में स्थल व्यापार को अधिक सुविधाजनक, हानिरहित और लोकप्रिय माना गया था। नगरों को जोड़ने वाले अनेक राजपथ थे। व्यापारियों द्वारा चिरकाल से इन राजपथों का उपयोग हाता था। ये राजपथ सभी के आवागमन के लिए उपयोगी थे। दीघनिकाय स्पष्ट रूप से पाटलिपुत्र का उल्लेख 'वणिकपथ' के रूप में करते हुए इसे सभी नगरों में श्रेष्ठ कहता है।" स्थल मार्गों से पाँच-पाँच माल से लदी गाड़ियाँ एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा करती रहती थीं। कभी इस संख्या में वृद्धि होती और यह करीब एक हजार तक पहुँच कर पूर्वी जनपद से पश्चिमी जनपद की ओर प्रस्थान करती थीं। काफिले को मार्ग में बड़ी असुविधाओं का सामना करना होता। जब पाँच सौ माल से लदी गाड़ियाँ राजपथ होकर गुजरती तो किसी स्थान पर सभी गाड़ियाँ फंसकर जाम हो जाती थीं। यह व्यापारियों के लिए बहुत घाटे का सौदा होता था और माल को मजबूरन उतारक सस्ते-सस्ते दामों पर बेचना पड़ता था० विनयष्टिक में राजपथ से गुजरने वाले व्यापारियों के साथ यात्रा करना निरापद माना गया था। देश के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्रों में दैनिक