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55 बौद्ध वास्तु-कला पर भारतीय संस्कृति का प्रभाव
चन्द्रकला राय
भारतीय कला की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। विश्व में एशिया महादेश ही एक ऐसा भौगोलिक परिक्षेत्र है जहाँ कई धर्मों एवं संप्रदायों का उद्भव हुआ और समय के साथ विकास एवं प्रसार हुआ। ई० पू० छठी शताब्दी से नगर-जीवन धनिक वर्ग तथा दरबारों के अभ्युदय के साथ वास्तुकला तथा विविध शिल्पियों का पुनरुज्जीवन स्वाभाविक रूप से हुआ।
वास्तु कला में बौद्ध वास्तु की महत्वपूर्ण देन है। यह देन वास्तुकला की दोनों विद्याओं गुहा वास्तु व स्वतन्त्र वास्तु में समान रूप से परिलक्षित होती है। बौद्ध स्वतन्त्र वास्तु का प्रमुख उदाहरण स्तूप है। जिनमें विदित होता है। कि वेदिकाओं एवं तोरणों की प्रेरणा वैदिक वेदिकाओं व तोरण द्वारों से ग्रहण की गयी थी।
सामान्यतः स्तूप का सम्बन्ध बौद्ध धर्म से माना जाता है। किन्तु इसका उल्लेख सर्वप्रथम ऋग्वेद में हुआ है। यहाँ अग्नि की उठती हुई ज्वालाओं को 'स्तूप' कहा गया है। वितान लेकर फैले हुए वृक्ष के साथ स्तूप की तुलना की गयी है। ऋग्वेद में ही सूर्य के लिए हिरण्य स्तूप कहा गया है। जिसका शाब्दिक अर्थ है सोने का थूरा या ढेर। भगवान बुद्ध अपने ज्ञानमय प्रकाश के कारण अग्नि स्कन्ध बन गये थे। और स्तूप के रूप में उनकी स्मृति या पूजा को उचित समझा जाता था।
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