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श्रमण-संस्कृति के लिए लोगों की बलि चढ़ाने में नहीं हिचकते लोगों में हिंसात्मक प्रवृत्तियां बढ़ रही हैं।
यद्यपि अहिंसा एवं सदाचार का समावेश भारतीय संस्कृति एवं अन्य धर्म ग्रन्थों में भी निहित है परन्तु वह केवल सैद्धान्तिक रूप में दिखता है क्योंकि यज्ञ या अन्य कर्मकाण्डों में पशुबलि की प्रथा का संकेत अनेक ग्रन्थों में परिलक्षित है। भारतीय संस्कृति में अहिंसा का प्रसार जैन धर्म के माध्यम से होकर वह व्यवहारिक रूप में व्यवहृत हुआ तथा राष्ट्रीय सिद्धान्त के रूप में स्वीकार किया जाने लगा।
जैन धर्म चूंकि ईश्वर या स्रष्टा में विश्वास नहीं करता अतः मनुष्य दुःख से मुक्ति भी इस प्रकार की किसी शक्ति की कृपा पर निर्भर नहीं करती। मनुष्य स्वयं अपना भाग्य निर्माता एवं कर्ता है वह कठोर आचार व्रत एवं परीषह जनित जीवन जीकर वह स्वयं दुःखपूर्ण जीवन से मुक्ति पा सकता है। मनुष्यों के अन्तर मानवता है तो वह कहाँ से आयी हैं इन विषयों का समावेश अन्ततः जैन धर्म के कारण ही हुआ है। अतः हम यह कह सकते हैं कि जैन भारत में अधिक प्रभुत्वशाली धर्म नहीं रहा तथापि देश में एक सशक्त सम्प्रदाय अवश्य ही बना रहा। जैन धर्म की रूढ़िवादिता, ब्राह्मण धर्म से इसकी सादृश्यता, धर्म प्रचार की उग्र भावना का अभाव तथा अन्य धर्मों में विरोधाभाष का दुर्भाव होने से जैन धर्म देश के विभिन्न भागों में आज भी विद्यमान है।
संदर्भ 1. प्राचीन भारतीय धर्म और दर्शन (एक सर्वेक्षण) डॉ. अजय पाण्डेय, डॉ० कुंवर
बहादुर कौशिक। 2. संकट प्रसाद (जैन धर्म और दर्शन)। 3. दत्ता एवं चटर्जी (भारतीय दर्शन)। 4. अभिनव सत्यदेव (प्राचीन भारतीय धर्म और दर्शन)।