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अहिंसा का सिद्धान्त और उसकी वर्तमान प्रासंगिकता
335 देशप्रेम को मैं अपने धर्म के अन्तर्गत मानता हूँ। मां की गोद के बच्चे की तरह मैंने उसे जकड़ रखा है, क्योंकि जिसकी मुझे जरूरत है आत्मा का वही पुष्टिकर खाद वह मुझे दे रहा है। जिस दिन मैं वह खाद न पाऊँगा, अनाथ हो जाऊँगा। तब मैं निर्जन हिमालय में चला जाउंगा। अपनी रक्त रंजित आत्मा की रक्षा के लिए।'
महात्मा गांधी इतिहास के आधार पर अहिंसा की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करते हैं। गांधी जी की अहिंसा की दो बड़ी विशिष्टताएं हैं - 1. गांधीजी से पहले अहिंसा का सामान्य अर्थ किसी जीव का प्राण
न लेना तथा इसे खान पान के विषय तक सीमित रखना था। गांधीजी ने इसका विस्तृत विवेचन करते हुए कहा कि यह खाद्याखाद्य के विषय से परे है। मांसाहारी अहिंसक हो सकता है, फलाहारी या अन्नाहारी घोर हिंसा करते देखे जाते हैं। एक व्यापारी झूठ बोलता है, ग्राहकों को ठगता है, कम तौलता है किन्तु यह व्यापारी चींटी को आटा डालता है। फिर भी यह व्यापारी उस मांसाहारी व्यापारी की अपेक्षा अधिक हिंसक है, जो मांसाहार करते हुए भी ईमानदार है और किसी को धोखा नहीं देता। इस प्रकार गांधीजी ने जीव हिंसा की विवेचना करते हुए अहिंसा की परम्परागत परिभाषा और सीमा में नवीन क्रान्तिकारी परिवर्तन और विस्तार किया। महात्मा गांधी ने अहिंसा को व्यक्तिगत और कौटुम्बिक क्षेत्र की संकीर्ण परिधि से निकालकर इसे सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में भी हर प्रकार के अन्यायों का प्रतिकार करने का शस्त्र बनाया। अहिंसा के विषय में महात्मा गांधी की यह सबसे बड़ी मौलिक देन थी। भारत की स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए राजनीतिक क्षेत्र में अहिंसा के सफल प्रयोग से उन्होंने अपने उपरोक्त दावों को सत्यसिद्ध किया। उन्होंने अन्याय और अत्याचार के विरूद्ध अहिंसा
का प्रयोग सत्याग्रह के रूप में भी किया। संक्षेप में गांधीजी का अहिंसा से यह अभिप्राय था - सृष्टि पर सब प्राणियों को मन, वाणी और कर्म से किसी प्रकार की कोई हानी न पहुंचाई