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श्रमण-संस्कृति
शक्तिशाली है। क्षमा सैनिक की शोभा है - लेकिन क्षमा तभी सार्थक है जब शक्ति होते हुए भी दण्ड नहीं दिया जाता। जो कमजोर है, उसकी क्षमा बेमानी है । मैं भारत को कमजोर नहीं मानता। तीस करोड़ भारतीय एक लाख अंग्रेजों के डर से हिम्मत नहीं हारेंगे। इसके अलावा वास्तविक शक्ति शरीर बल में नहीं होती, होती है अदम्य मन में । अन्याय के प्रति भले आदमी की तरह आत्मसमर्पण का नाम अहिंसा नहीं है । अत्याचारी की प्रबल इच्छा के विरूद्ध अहिंसा केवल आत्मिक शक्ति से टिकती है। इसी तरह केवल एक मनुष्य के लिए भी समूचे साम्राज्य का विरोध करना और उसको गिराना संभव हो सकता है । '
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लेकिन किस कीमत पर ? अपनी यंत्रणा की। यंत्रणा की शाश्वत रीति है .' वहीं मनुष्य जाति का चिन्ह है । वह आत्मा का आवश्यक गुण है। मृत्यु से ही जीवन का जन्म होता है। बीज जब तक नष्ट नहीं होता, वृक्ष नहीं बन पाता है। जो यंत्रणा की आग से होकर नहीं गुजरता वह बढ़ेगा कैसे? इस नियती से किसी को छुटकारा नहीं है। दूसरों को पीड़ा न देकर अपनी ही पीड़ा को पवित्र करने की चेष्टा में प्रगति सार्थक होती है। वह व्यक्तिगत पीड़ा जितनी पवित्र होगी, प्रगति उतनी ही महान होगी । अहिंसा ही विवेक की वह पीड़ा है। आत्मत्याग और यंत्रणा की उस पुरानी नीति को ही भारत के सामने प्रस्तुत करने की जिम्मेदारी मैंने ली है। चरम हिंसा के बीच भी जिन ऋषियों ने अहिंसा नीति का अविष्कार किया, वे प्रतिभा में न्यूटन से बहुत बड़े थे, योद्धा के रूप में भी वे वेलिंगटन से और अधिक बड़े थे। उन्होंने हथियारों को पहचाना था, इसलिए उनकी निस्सारता भी जान ली थी। फिर भी अहिंसा का अस्त्र सबके लिए हैं, केवल ऋषियों के लिए नहीं। हम मनुष्य हैं इसी से वह रीति हमारी है, जैसे हिंसा की रीति पशु स्वभाव वालों की है। महिमामय मनुष्य के लिए आत्मिक शक्ति जैसी उच्चतर रीति ही तो चाहिये । इसलिए मैं भी चाहता हूँ कि भारत उस रीति के व्यवहार में मतवाला हो उठे, उसकी शक्ति जाने । भारत की एक आत्मा है और इसलिए उसका विनाश संभव नहीं है उस आत्मा में सारे संसार की समस्त जड़ शक्ति के विरोध करने की क्षमता है।'
वह आगे कहते हैं - 'भारत यदि हिंसा में ही विश्वास करे तो मैं यहाँ न रहना चाहूंगा - तब वह किसी गर्व की भावना से मुझे उदीप्त न कर सकेगा।