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श्रमण-संस्कृति
के अहिंसा के पालन पर बल दिया गया है। जैन धर्म में अहिंसा के पालन के
लिए निम्नलिखित आचारों का निर्देश दिया गया है' -
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1.
2.
संयम से बोलना ताकि कटु वचन से किसी को कोई कष्ट न पहुंचे।
संयम से भोजन ग्रहण करना जिससे किसी प्रकार की कीड़े मकोड़े की हत्या न हो सके।
किसी वस्तु को उठाने तथा रखने के समय विशेष सावधानी बरतना जिसेस किसी जीव की हत्या न हो सके ।
मलमूत्र का त्याग ऐसे स्थान पर करना जहाँ किसी जीव की हिंसा होने की आशंका न रहे।
अहिंसा का शाब्दिक अर्थ हिंसा या हत्या न करना है। हिंसा का अर्थ किसी भी जीव को स्वार्थ वश, क्रोध वश या दुःख देने की इच्छा से कष्ट पहुंचाना या मारना है। इस प्रकार हिंसा के मूल में स्वार्थ, क्रोध या विद्वेष की भावना है। अहिंसा के उपासक को इन सभी पर विजय पाते हुए प्राणीमात्र के प्रति अपने घोरतम शत्रु के प्रति भी अगाध प्रेम और मैत्री की भावना रखनी चाहिये। इसी को अहिंसा कहते हैं । सामान्य रूप से हिंसा को पाप समझा जाता है किन्तु गांधी जी जीवन निर्वाह के लिए की जाने वाली हिंसा को पाप नहीं मानते हैं। स्पष्ट है कि जैन ने अहिंसा और सदाचार का प्रचार किया और संयमित जीवन व्यतीत करने का संदेश दिया। जैन धर्म का स्यादवाद् का सिद्धान्त विभिन्न मतों एवं सम्प्रदायों के बीच भेदभाव मिटाकर समन्यवादी दृष्टिकोण अपनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास माना जा सकता है। ऐसा करके उसने समन्वय एवं सहिष्णुता के भारतीय दृष्टिकोण को सुदृढ़ आधार प्रदान किया है।
3.
4.
संयम से चलना ताकि मार्ग में कीट पतंगों के कुचलने से कोई हिंसा न हो ।
5.
कालान्तर में अहिंसा के इस सिद्धान्त को विश्वव्यापी बनाने का श्रेय महात्मा गांधी को जाता है। महात्मा गांधी ने अहिंसा के साथ-साथ सत्याग्रह के सिद्धान्तों को अपनाकर 1920 से 1947 तक भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का