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अहिंसा का सिद्धान्त और उसकी
वर्तमान प्रासंगिकता
राजेश कुमार शर्मा
भारतीय संस्कृति के उदय और अस्तित्व के मूल में धर्म सदाशय रूप से निहित है। भारतीय संस्कृति में मानवीय आदर्शों का समावेश धर्म के सम्पर्क से ही हुआ। सर्वप्रथम 5वीं - 6ठी शताब्दी ई० पू० और तत्पश्चात् औपनिवेशिक काल में भारत का सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन अतीत की विभिषिकाओं से संत्रस्त होकर सुव्यवस्था की आकांक्षा में था जिसके द्वारा स्थायी शान्ति के माध्यम से राष्ट्रव्यापी आधार निर्मित हो सके। वस्तुतः यह भारत के बौद्धिक चिन्तन का काल था, जिनके मस्तिष्क में सृष्टि की अन्तिम सत्य क पहुंचने की उत्कृष्ट अभिलाषा थी। इस परिप्रेक्ष्य में भारत में समय समय पर बौद्धिक एवं वैचारिक संघर्षों के परिणामस्वरूप गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, महात्मा गांधी जैसे व्यक्तियों का जन्म हुआ जिनके अक्षुण्ण ज्ञान रूपी निर्मल प्रकाश ने भारतीय संस्कृति एवं विचारधारा को एक नवीन दिशा प्रदान की।
__ अत्यन्त प्राचीनकाल से ही भारत में अहिंसा को महत्व दिया जाता रहा है। यं तो अहिंसा भारतीय संस्कृति का आधारभूत स्तम्भ है और भारतीय संस्कृति के मूल में जितने भी धर्म है उन सभी में किसी न किसी रूप में अहिंसा को प्रसय दिया गया है। लेकिन स्पष्ट रूप से पहली बार छठी शताब्दी ई० पू० जैन धर्म के प्रतिपादक महावीर स्वामी ने अपने सिद्धान्तों के रूप में इसे स्वीकार किया। अहिंसा जैन धर्म का प्रमुख सिद्धान्त है जिसमें सभी प्रकार