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51 श्रमण धर्म दर्शन की अहिंसा
का परवर्ती प्रभाव
एच० एन० सिंह, अरविन्द कुमार
श्रमण के लिए प्राकृत साहित्य में 'श्रमण' शब्द का प्रयोग हुआ है। श्रमण शब्द का सामान्य अर्थ जैन सूत्रों में साधु अर्थ प्रयोग किया गया है। श्रमण शब्द के समान और रूप प्राप्त होते हैं। श्रमण शब्द 'श्रम' धातु से बनता है। श्रम का अर्थ होता है परिश्रम करना। तपस्या का दूसरा नाम परिश्रम भी है। जो व्यक्ति अपने ही श्रम से उत्कर्ष की प्राप्ति करते हैं, वे श्रमण कहलाते हैं। समन का अर्थ होता है समानता और शमन का अर्थ होता है शान्त करना अर्थात् जो भी प्राणियों को समान दृष्टि से देखते हैं और सभी विकारों को शान्त करता है वह श्रमण कहा जाता है। जैन एवं बौद्ध दोनों धर्मों में श्रमण शब्द का प्रयोग किया गया है। प्रोफेसर लासेन, प्रो० वेबर तथा प्रो० याकोबी आदि ने जैन और बौद्ध धर्मों को समान मानते हुए भी जैन धर्म को प्राचीन माना है।
जैन आचार्य की मूलभित्ति अहिंसा है। मन से भी हिंसा का विचार करना जैन धर्म में निषिद्ध है। जैन धर्म में अहिंसा की व्याख्या पंच महाव्रत और पंच अणुव्रत में कठोरतम रूप से की गई है। परन्तु बौद्ध धर्म मध्यम वर्ग का निर्देश देता है जिसमें कठोर अहिंसा की व्याख्या नहीं की गई है। श्रमण धर्म में प्रचलित अहिंसा का परवर्ती प्रभाव भारत के विभिन्न धार्मिक चिन्तनों पर दिखाई देता है। मनु ने धर्म के दस लक्षणों का उल्लेख किया है -
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचनिन्द्रिय निगहः। धीविद्या सत्यम क्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।