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जैन परम्परा में श्रमण-चिन्तनधारा का भारतीय संस्कृति पर प्रभाव 327 स्वीकार किया जाता है। महावीर स्वामी का परिनिर्वाण ई० पू० छठी शताब्दी स्वीकार किया जाए तो, पार्श्वनाथ को ई० पू० आठवीं शताब्दी में रख सकते हैं।
___ अतः उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि श्रमण परम्परा संभवतः भारत में आर्यों के आगमन से पूर्व प्रचलित थी, जिसे ब्राह्मण समन्यवादी प्रवृत्ति ने अपनी धार्मिक परम्परा में आत्मसात् करने का प्रयास किया। इस प्रयास का प्रथम चरण महाभारत के शान्तिपर्व (अध्याय 125-128) है। इसमें ऋषभ को एक ऋषि कहा गया है, जो आशा आदि विकारों एवं शरीर के स्थूल तत्त्वों को 'कृशकाय' करने का उपदेश देते थे। दूसरा चरण प्राचीन पुराणों का है, जिसमें उन्हें नामिराज का पुत्र चक्रवर्ती भरत के पिता हिमालवर्ण के राजा के रूप में प्रस्तुत किया गया है। तीसरा चरण शिव महापुराण है, जिसमें ऋषभ को शिव के 28वें योगावतारों में से एक कहा गया है। अन्तिम चरण भागवत पुराण कहा है, जिसमें ऋषभ परम्परा स्वरूप वातरशना उर्ध्वमर्थिन श्रमण-ऋषियों के धर्म उन्यायक के रूप में प्रस्तुत किये गये हैं।
सन्दर्भ 1. हीरालाल जैन, भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० 109-110 2. ऋग्वेद, 10/136 3. तैत्तिरीय आरण्यक, 1/23 4. वही, 2/7 5. मज्झिमनिकाय - अध्याय 40 6. महाभारत आदिपर्व, 1/127 7. एम० एस० विल्सन, अनूदित विष्णुपुराण, पृ० 133 8. ताड्य ब्राह्मण 1/27 9. सकंठा प्रासाद- बौद्ध एवं जैन धर्म दर्शन, पृ० 10 10. वही, पृ० 11