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श्रमण-संस्कृति
मुनियों के विवरण से साम्य रखता है। इसमें वर्णित है कि - मेरू देवी से वातरशना श्रमण-ऋषियों के धर्मों को प्रकट करने की इच्छा से (ऋषभ ने) अवतार ग्रहण किया। 'मेरू देव्या......द्वातरशनांना उर्ध्वमन्थिमां शुक्ल या तन्वावतार । '
इस श्रमण- परम्परा के परिपालक देवता व देवाराध्य के संबंध में उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि - ऋषभदेव इस श्रमण परम्परा के उन्नायक थे । ऋग्वेद में - 'त्रिधा बद्धों वृषभों रोखीति महादेवी मर्त्यानाविवेश' - त्रिधा संभवतः ज्ञान, दर्शन, एवं चरित्र त्रयी की ओर संकेत कराता है। इस प्रकार श्रमण परम्परा के देवता त्रिशिर्ष देव हैं, तो उनके शिष्य एवं उनपर आचरण करने वाले यति हैं । यह निर्विवाद रूप से स्पष्ट है। कि - यदि व मुनि वैदिक परम्परा से किसी प्रकार श्री सम्बन्धित नहीं है। उनका वेद विरूद्ध आधार ही इन्द्र के कोप के कारण हुआ। जैसा कि - ताड्य ब्राह्मण के भास्यकार ने यतियों का उल्लेख किया है - 'वेद विरूद्ध प्रकारन्तेण वर्तमान' अर्थात वेद विरोधी कर्म विरोधी ज्यातिष्टोम आदि के करने वाले नहीं थे । इस प्रकार ये श्रमण परम्परा से पृथक थे ।
भारतीय संस्कृति के प्रत्येक काल में यह वेद-विरोधी परम्परा विद्यमान रही, किन्तु इसका नाम पृथक रहा। अर्थवेद में मगध के व्रात्यों का उल्लेख है, जो वैदिक विधि से अनभिज्ञ थे । जैनधर्म के महाव्रत, अणुव्रत, गुणव्रत व व्रतों को ग्रहण करने वाले मुनि महाव्रती तथा श्रावक कहलाए । सम्भवतः इन्हीं श्रमणी - व्रतियों को अर्थववेद में व्रात्य कहा गया है। इस प्रकार वैदिक साहित्य के पूर्व से उत्तर वैदिक काल तक श्रमण परम्परा की अक्षुण परम्परा किसी न किसी रूप में विद्यमान थी । ऋषभदेव के अतिरिक्त सुमतिनमि व नेमिनाथस के यत्र-तत्र प्रांग ब्राह्मण साहित्य में उपलब्ध हैं ।"
पौराणिक वंशावलियों में सुमतिनमि को जनक का पूर्वज स्वीकार किया गया है। वे अनासक्त वृत्ति व अहिंसात्मक आचार के उन्नायक थे । सुमतिनमि से भी अधिक शक्तिशाली व्यक्ति 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ का है, इनका सम्बन्ध महाभारत युग से है। 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता महावीर से पूर्व की है क्योंकि पार्श्वनाथ का महापरिनिर्वाण महावीर से 250 वर्ष पूर्व