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जैन परम्परा में श्रमण-चिन्तनधारा का भारतीय संस्कृति पर प्रभाव 325 केशी अग्नि, जल, स्वर्ग और पृथ्वी को धारण करते हैं, केशी समस्त विश्व के तत्व का दर्शन करते हैं व केशी ही प्रकाशमान व ज्ञान-ज्योति कहलाते हैं। अतिन्द्रीया अर्थ के दृष्टा वातरशना (वातवेष्ठनग्नव) मुनि मल धारण करते हैं, जिससे वे पिशंगा (पीत, पिंगल) वर्ण दिखते हैं, जब वे वायु की गति को प्राणोपासना द्वारा धारण करते हैं, तो वे अपनी तप की महिमा से दैदिप्यमान होकर देवता-स्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं। सर्वलौकिक व्यवहार को छोड़कर हम (केशी) मौन वृत्ति से अन्तत्रवत् वायुभाव को प्राप्त होते हैं और तुम साधारण मनुष्य हमारे बाह्य शरीर को पाते हो, हमारे सच्चे स्वरूप को नहीं। इन वातरशना मुनियों का विवरण तैत्तिरीय आरण्यक् में भी उपलब्ध है। यहाँ उल्लेख है कि - प्रजापति के मांस से अरुण केतु एवं वातरशना के नख से वैखानस तथा बाल से बालखिल्यों की उत्पत्ति हुई। आगे दूसरे प्रपाठक में वर्णित है' 'वातरशना ह वाऋषयः श्रमणा उर्ध्वमंथिनो' अर्थात् वातरशना ऋषि श्रमण व उर्ध्वमंथिन् थे। सायण ने उर्ध्वमंथिन की व्याख्या उध्वरेखा से की है, जो एक प्रकार की योग साधना है।
गौतमबुद्ध ने भी अपने आचारशास्त्र का उल्लेख करते हुए श्रमण - परम्परा को निर्दिष्ट किया था। इस श्रमण परम्परा के सन्दर्भ में उल्लेखनीय प्रमाण पौराणिक साहित्य प्रस्तुत करते हैं। परम्पराओं की उचित व्याख्या के सम्बन्ध में महाभारत में उल्लेख है कि - इतिहास व पुराणों के माध्यम से ही वेदों का उपबृहण किया जाय, क्योंकि अधूरे ज्ञान वालों से वेद बहुत डरते हैं - कहीं अर्थ का अनर्थ न कर डालें। इतिहास पुराणभ्यां ..........प्रतरिष्यति' वेदार्थ की इस पौराणिक पद्धति का अनुकरण किया जाय तो हमें स्पष्टतः पौराणिक परम्परा में नाभि के पुत्र ऋषभ का उल्लेख मिलेगा। विष्णुपुराण में वर्णित है कि - महाराज नाभि एवं उनकी महारानी मेरू देवी से ऋषभ उत्पन्न हुए। उन्होंने कठोर तपस्या द्वारा शरीर 'कृशकाय' कर लिया था। अपने मुख में कंकड रखकर वे नग्न 'वीर स्थान' में रत हुए। विष्णुपुराण संभवतः प्राचीनतम पुराणों में एक है, इसमें ऋषभ की नग्नता, मुख में कंकड़ धारणकर मौनव्रत एवं अन्त में नग्न 'वीर' स्थान स्पष्ट रूप से उन्हें जैन परम्परा से सम्बन्धित करता है। भागवत पुराण का विवरण ऋग्वेद के 'केशी - सूक्त' के वातरशना