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50 जैन परम्परा में श्रमण-चिन्तनधारा का
भारतीय संस्कृति पर प्रभाव
रत्ना सिंह
योग तथा साधना की चिन्तनधारा श्रमण-चिन्तनधारा से संबंधित थी, जिसका सर्वप्राचीन उदाहरण सिन्धु सभ्यता की योगी प्रतिमा एवं नग्न युवक की प्रतिमा से स्पष्ट है। वैदिक वाङ्गमय में दो परस्पर विरोधी संस्कृतियों की सूचना उपलब्ध है - प्रथम ऋग्वैदिक आर्यों की लौकिक चिन्तनधारा जो लौकेषणा, पुत्रैषणा, एवं वित्तैषणा से सन्तुष्ट बाह्य संत्तात्मक बहुदेववाद में विश्वास करती थी, तो दूसरी व्यक्तिपरक, एकान्तिक, आत्मनिष्ठ चिन्तनधारा, जो त्याग को, तप को, अकिचनता को जीवन का परम उद्देश्य स्वीकार करती थी। इन दोनों चिन्तन धाराओं में क्रमशः भोग व योग, लौकिक व पारलौकिक, भौतिक एवं आध्यात्मिक, कामना एवं साधना की परस्पर विरोधी भावनाएं विद्यमान थीं। वैदिक ऋषि संस्कृत ऋचाओं के रचयिता एवं संस्कृति के उन्नायक थे, किन्तु इस श्रमण चिन्तनधारा के रचयिता तथा उन्नायक कौन थे? यह वैदिक वाङ्गमय में स्पष्ट नहीं है। इसका स्पष्ट कारण यह है कि - श्रमण परम्परा वैदिक परम्परा के प्रतिस्पर्धिनी रही है, इसलिए संभवतः उसके नियामक का स्पष्ट उल्लेख वैदिक वाङ्गमय में नहीं है। जैन साहित्य में स्पष्ट रूप से ऋषभदेव को इस श्रमण-परम्परा का उन्नायक स्वीकार किया गया है और इनकी प्राचीनता ऋग्वैदिक काल तक स्वीकार की गई है।'
ऋग्वेद में श्रमण-परम्परा के कुछ लक्षण लंछित हैं, जिनका प्रमुख प्रसंग निम्नवत है - 'कैश्यग्निं केशो..........मानीसो अभिपश्चथ' अर्थात्