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जैन एवं बौद्ध परम्परा में अहिंसा
317 है, सब में निर्वाण प्राप्त करने की योग्यता है। अतएव वे इनकी हिंसा पर निरोध लगाते हैं। पृथ्वीकाय, जलकाय, वायुकाय, अग्निकाय, वनस्पतिकाय
और त्रासजीव इन छः प्रकार के जीवों के प्रति संयमपूर्ण व्यवहार ही जैन धर्म में अहिंसा हैं। बौद्ध धर्म में भी यज्ञीय कर्मकाण्डों तथा पशुबलि जैसी कुप्रथाओं का जमकर विरोध किया गया। विश्व के देशों को अहिंसा, प्राणिमात्र पर दया आदि का संदेश भारत ने बौद्ध धर्म के माध्यम से ही दिया। बौद्ध धर्म में जिस अहिंसा एवं सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया उसका प्रभाव ही था कि अशोक ने युद्ध विजय की नीति का परित्याग कर धम्म विजय की नीति को अपनाया तथा सम्पूर्ण विश्व को 'जियो और जीने दो' का संदेश दिया। अशोक ने अनेक पशु-पक्षियों के वध पर रोक लगाया। अपने भोजनालय में भी उसने मांस पकाने पर प्रतिबन्ध लगाया। पर बौद्ध धर्म की अहिंसा जैनियों की तरह अतिवादी नहीं थी। यह माध्यम मार्ग से इसका अनुकरण करते थे। सामाजिक जीवन में शाकाहारी भोजन का प्रचलन भिक्षु नियमों के अनुसार हुआ। यह अहिंसा का ही प्रभाव था। छूट केवल तभी थी जब विशेष परिस्थिति उत्पन्न हो जैसे संघ में बुद्ध की मौसी के सिर में पीड़ा होने पर बताया गया कि मांस खाने से यह पहले ठीक होता था, तो बुद्ध ने उस परिस्थिति में मांस खाने की छूट दे दी थी। इसी प्रकार भिक्षाटन में मिले मांस के भोजन की तथा सामाजिक उत्सवों में मिले मांस को खाने की छूट थी। ___अहिंसा की नीति के पोषक होने के कारण ये मत तत्कालीन जनमानस में अत्यधिक लोकप्रिय हुए, विशेष रूप से व्यापारियों एवं कृषकों के बीच। क्योंकि युद्ध आदि से सर्वाधिक क्षति इन्हीं को होती थी। अहिंसा की नीति के कारण पशुपालन को भी बढ़ावा मिला। जोकि पशुओं की बढ़ती उपयोगिता को देखते हुए समय की मांग भी थी।
इस प्रकार जैन एवं बौद्ध परम्परा में अहिंसा के जिन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है, वे आज के वैज्ञानिक युग में भी अपनी प्रासंगिकता बनाये हुए हैं तथा विश्व के देश उन्हें कार्यान्वित करने का प्रयास कर रहे हैं। भारतीय परिप्रेक्ष्य में महात्मा गांधी के अहिंसा के प्रयोग तथा पंचशील के सिद्धान्तों पर इनका प्रभाव देखा जा सकता है। आधुनिक संघर्षशील युग में