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जैन एवं बौद्ध परम्परा में अहिंसा
काली शंकर तिवारी
ईसा पूर्व छठी शताब्दी का काल धार्मिक दृष्टि से क्रान्ति अथवा महान परिवर्तन का काल माना जाता है। इस समय नवीन विचारधाराओं का आविर्भाव हुआ। ब्राह्मण एवं ब्राह्मणेत्तर श्रमणों, परिव्राजकों, भिक्षुओं आदि के अनेक सम्प्रदाय अस्तित्व में आए जिन्होंने विभिन्न मतों एवं वादों का प्रचार एवं प्रसार किया। इनमें जैन एवं बौद्ध मतों का प्रमुख स्थान है। इनकी उत्पत्ति आकस्मिक नहीं बल्कि वैदिक युग से अब तक के पूंजीभूत विश्वासों के सत्यान्वेषण का प्रतिफल था। इस काल में मनुष्य की जिज्ञासा युग पुरातन के संचित विश्वासों के आवरण को हटाकर प्रत्येक वस्तु की वास्तविकता का साक्षात्कार करना चाहती थी। मनुष्य की तर्कशीलता एवं सत्यान्वेषी दृष्टि के समक्ष अंधविश्वास की प्राचीनता डगमगा रही थी, कर्मकाण्ड की विशाल दीवारें जर्जरित हो रही थीं और अंधविश्वासों पर संरोपित पुरातन मान्यतायें अब मानव के सम्मुख निराश सी दिखाई देने लगी थीं।
यह सत्य है कि जैन एवं बौद्ध परम्परा ब्राह्मण धर्म के घोर कर्मकाण्ड की बलवती प्रतिक्रिया थी। ब्राह्मण धर्म के हिंसात्मक यज्ञीय कर्मकाण्डों के विपरीत अहिंसा को जैन एवं बौद्ध विचारधारा में सर्व प्रमुख स्थान प्राप्त हुआ। भारतीय सामाजिक जीवन में श्रमण परम्परा एवं वैदिक परम्परा में अहिसां की नीति को लेकर सदैव विरोध रहा। पशुबलि यज्ञ क्रियाओं का एक सामान्य अंग बना रहा। जिसका श्रमण साधु सदैव विरोध करते रहे। जैन धर्म अहिंसा की भावना का प्रथम उद्घोषक माना जाता है। इस धर्म ने अहिंसा पर अपेक्षाकृत अधिक जोर दिया। इसके अनुसार संसार में अनन्त प्राणी हैं और सब में जीव विद्यमान