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श्रमण-संस्कृति संसार के सभी प्राणियों में वर्तमान है। वे चाहे जिस अवस्था में हों दुःख से छुटकारा नहीं पा सकते। दूसरा सत्य यह है कि दुःख का कारण है। बिना कारण के कोई कार्य नहीं हो सकता।
बुद्ध के शून्यवाद के अनुसार सब कुछ क्षणिक है। सृजन होता है कि संहार होता है। उस प्रकार हम देखते हैं। नागार्जुन द्वारा प्रस्तावित शून्यवाद को साधना के स्तर पर बुद्ध ने स्थापित किया। उस मत के मूल में सह धारणा है कि संसार शून्य है।
माध्यमिक अथवा शून्यवाद के अनुसार संसार शून्य हैं। अन्तर्बाह्य सभी असत्य हैं। इसीलिए उसे शून्यवाद कहा है। बुद्ध के शून्यवाद मत का सन्त मत पर प्रभाव पड़ा है। गौतम तथा कबीर में सैद्धान्तिक धरातल पर यहाँ आधारभूत साम्य है। वस्तुतः कबीर के दुःख के रूप वे ही हैं जो गौतम के थे:
कबीरा मैं तो सब डरौं, जो मुझ ही में होइ।
मीचु, बुढ़ापा, आपदा, सब काहू पै सोइ।। दोहे के अन्तिम में दुःख की मुख्य पहचान सर्वव्यापकता अर्थात् प्रथम आर्य सत्यत्व सिद्ध किया गया है, और तृतीय चरण में उस आर्य सत्य (दुःख) के तीन रूप बतलाए हैं - मृत्यु (मीचु), जरा (बुढ़ापा), तथा रोगादि (आपदा)। गौतम का क्रम है जरा-मरण-शोक, परन्तु कबीर का क्रम है, मीचु-बुढ़ापा-आपदा। कुमार सिद्धार्थ के तीन अनुभव ही कबीर के दुःख रूप
बुद्ध ने दुःख समुदाय हेतु तीन प्रकार की तृष्णा (काम, भव, विभव) को माना है। कबीर ने जगत को दुःखमय माना है क्योंकि आशारूपिणी तृष्णा विश्वव्यापिनी है -
माया मुई न मन मुा, मरि-मरि गया सरीर।
आसा-तृस्ना नां मुई, कहि गया दास कबीर।।' तृष्णा के प्रति अनासक्ति कठिन कार्य है। बुद्ध का चतुर्थ आर्य सत्य, दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदःसही मार्ग दिखाता है। यह जो कामोपभोग का हीन, अनार्य-अनर्थ का जीवन है और यह जो अपने शरीर को व्यर्थ क्लेश देने