________________
बुद्धकाल में भारत की राजनीतिक तथा सामाजिक व्यवस्था 305 संबंधित विवरणों को पढ़कर लगता है कि ये स्नानगृह हमारे आज के 'टर्किश बाथ' जैसे होते थे। प्रश्न उठता है यह तुर्कों ने इन स्नानगृहों से अपने स्नानगृह बनाने की प्रेरणा ली है। दीघनिकाय में एक अन्य प्रकार प्रकार के स्नान-स्थल का भी उल्लेख है। यह खुली हवा में निर्मित सरोवर होता था। इसमें नीचे उतरने के लिए सीढियां होती थीं। इसके चारों ओर फूलों के पौधे लगाए जाते थे। ऐसे स्नान-स्थल धनी व्यक्तियों की निजी सम्पत्ति होते थे। अनुराधापुर में आज दो हजार वर्षों के बाद भी ऐसे सरोवरों को देखा जा सकता है।
यह ठीक है कि इस प्रकार के विशाल भवनों की संख्या अधिक नहीं होती थी। गरीब लोक तो जब भी तंग गलियों में बनी झोपड़ियों में रहते थे। सामान्य जन के लिए बाजारों की एक लम्बी पंक्ति होती थी। हाँ, दुकानों में खिड़कियाँ नहीं होती थीं। ये दुकानें सड़क की ओर खुलती थीं।आम आवश्यकता की चीजें इन बाजारों में प्राप्य थीं।
नगरों में कोने के मकान की कीमत अन्य मकानों से अधिक होती थी। नगर की सड़कों पर भीड़ और शोर कम होता था। मकानों में शौच-व्यवस्था कम ही होती थी। हाँ, नालियों का उल्लेख इतिहास-ग्रंथों में बार-बार हुआ है। लेकिन इनका उपयोग पानी के लिए किया जाता था।
मृतकों की देह का व्यवस्थापन भी, कुछ अर्थों में, बड़ा कौतूहलपूर्ण होता था। जन्म से अथवा वैभव से अथवा पद-प्रतिष्ठा से अथवा ज्ञान की दृष्टि से विशिष्ट व्यक्तियों का दाह-संस्कार किया जाता था और उनकी राख को एक तथाकथित स्तूप के नीचे दबा दिया जाता था। लेकिन सामान्य व्यक्तियों के शव के व्यवस्थापन का तरीका अनोखा था। उनके शव को दफनाने के बजाय किसी सार्वजनिक खुले स्थल पर रख दिया जाता था ताकि वह पक्षी तथा पशुओं के खाने के काम आ सके या स्वाभाविक रूप से नष्ट हो जाये। यह स्थान सार्वजनिक रूप से किसी को फांसी देने के लिए भी उपयोग में लाया जाता था।
कभी-कभी शव-भूमि (शमशान) में स्तूपों का निर्माण भी किया जाता था। लेकिन सामान्यतः इन स्तूपों की निर्मिति उपनगरों, निजी जमीन या चौराहों पर होती थी। इन स्तूपों को हम बुद्धकालीन मान लेते हैं। दरअसल, ये स्तूप पूर्व बुद्धकाल के हैं तथा संसार के अन्य भागों में पाये जानेवाले स्तूपों से