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श्रमण-संस्कृति पत्थरों छठी शताब्दी में एक पहाड़ी के चारों ओर पत्थर की दीवारें चिनी गयी थीं। आरंभिक युगों में स्तम्भों और सीढ़ियों के अतिरिक्त पत्थरों का उपयोग नहीं के बराबर होता था। घरों का निर्माण या तो लकड़ी से होता था या ईंटों से। घरों की दीवारों पर चूने का उपयोग होता था। घर अनेक प्रकार के भित्ति-चित्रों से सजाया जाता था। यद्यपि इस बात को स्वीकार नहीं किया जा सकता कि उस काल में चित्रकला अपनी पूर्णता को प्राप्त हो गयी थी।
इस काल में मकानों में प्रवेश एक विशाल द्वार से होता था। इसके दाहिनी और बायीं ओर क्रम से कोष और खाद्यान्न के भंडार होते थे। यह विशाल द्वार मकान के भीतरी दालान में खुलता था जिसके आगे तल-मंजिल पर बड़े कमरे बने होते थे। इन कमरों के ऊपर एक सपाट छत होती थी जिसे 'उपरि-प्रसाद-तल' कहा जाता था। सामान्यतः गृहपति यहीं प्रशाला (पेविलियन) में रहता था। यह प्रशाला बैठक, कार्यालय और भोजन-कक्ष के लिए उपयोग में लाई जाती थी।
उधर, राजा के महल में राज्य-प्रशासन से संबंधित सभी कार्यों के लिए अलग-अलग स्थान होता था। यहाँ अनेक 'हरम' भी होते थे। महल के बाहर राष्ट्र से संबंधित कोई प्रशासन व्यवस्था नहीं होती थी। तत्कालीन इतिहास ग्रंथों में सतखंडी प्रासादों का उल्लेख भी मिलता है। लेकिन उनमें से एक भी प्रासाद भारत में शेष नहीं बचा है। हाँ, श्रीलंका के पुलस्तीपुर में संभवतः ई० पू० दूसरी शती का एक प्रसाद अभी भी मौजूद है। वहीं पत्थरों से निर्मित उस काल के सहस्रों स्तंभों पर खड़ा एक अन्य प्रासाद भी है। भारत में इन सतखंडी महलों का उपयोग निजी तौर पर होता था और इनका संबंध किसी प्रकार के प्रार्थनागृहों से नहीं था।
राजा के महल के सामान्य से स्थान पर सार्वजनिक जुआघर होते थे। ये जुआघर या तो एक अलग कक्ष के रूप में होते थे या स्वागत कक्ष का हिस्सा होते थे। राजा का कर्तव्य होता था कि वह ऐसे स्थान की व्यवस्था करे। इन जुआघरों से जीत का एक भाग राजकोष में जाता था। जातकों में इस सब का उल्लेख विस्तार से मिलता है।
इतिहासों में गर्म हवा और पानी के स्नानगृहों का भी उल्लेख मिलता है। विनय पिटक में इनके विषय में विस्तार से बतलाया गया है। इन स्नानगृहों से