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बुद्धकाल में भारत की राजनीतिक तथा सामाजिक व्यवस्था 3B सर्वथा भिन्न थी। उस काल-खंड का किसान किसी बड़े दुर्भाग्य के कारण ही मजदूरी करता था। सामान्यतः तत्कालीन ग्रामीण अपनी स्वतंत्रता, अपने परिवार
और अपने गांव पर गर्व करता था। वह अपने ही गांव के सरपंच से, जो उसके ही वर्ग का होता था, अनुशासित होता था। सरपंच का चयन भी गांववालें ही करते थे। सरपंच के चुनाव में वे अपनी परम्परा और अपने आदर्शों को महत्व देते थे।
उपर्युक्त विवेचन से ज्ञात होता है कि तत्कालीन भारत एक प्रकार से गांवों का देश था। नगर भी थे अवश्य, लेकिन उनकी संख्या अधिक नहीं थी। तत्कालीन उल्लेख्य नगरों में चम्पा, मगध, कोशल, काशी, कन्नौज, मथुरा, इन्द्रप्रस्थ, पाटन, तक्षशिला और द्वारिका प्रमुख थे। इतिहासकारों ने, दरअसल, नगरों तथा नागरी जीवन के रेखांकन में कोई बहुत उत्साह नहीं दिखलाया। परिणाम स्वरूप इनके विषय में कम ही जानकारी उपलब्ध होती है। नगरों के सम्बन्ध में हमें ऊंची-ऊंची दीवारों, सुदृढ़ खम्भों युक्त प्राचीरों, निगरानी रखनेवाले स्तंभों तथा विशाल द्वारों का ही अधिक उल्लेख उपलब्ध होता है। दुर्गों के बाहर खाई होती थी। कहीं-कहीं दो प्रकार की खाइयों का उपयोग भी होता था। उनमें से एक पानी की और दूसरी मिट्टी की होती थी। सभी नगरों में किलेबंदी सामान्यतः एक ही प्रकार की होती थी। लेकिन दुर्गों की लम्बाई का ब्यौरा कहीं प्राप्त नहीं होता। विशाल नगरों में एक प्रकार से अनेक उपनगर बसे होते थे। इस बात का बार-बार उल्लेख मिलता है कि राजा तथा उसके प्रशासक दोपहर के आराम के लिए नगरों से बाहर उपनगरों में जाया करते थे।
बड़े मकानों में सड़क की ओर खुलनेवाली खुली खिड़कियाँ होती थीं। ये खिड़कियाँ किसी की निजी भूमि की ओर नहीं खुलती थी। घर के पिछवाड़े में घेराबंदी किसी की निजी भूमि की ओर नहीं खुलती थीं। घर के पिछवाड़े में घेराबंदी की गयी भूमि होती थीं।
___ इतिहास तथा बौद्ध-ग्रंथों में भवनों की गुणवत्ता के विषय में भी जानकारी मिलती है। उनके डिजाइन तथा प्रवेश-स्थल के विषय में भी कहीं-कहीं पर महत्वपूर्ण होता है। साथ ही, सामान्य जनता के आवासों का सूक्ष्म विवरण भी अनेक ग्रंथों में प्राप्य है। बुद्ध के जन्मकाल के समय भवन निर्माण के लिए