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श्रमण-संस्कृति खरीद कर सामान्य चरागाह अथवा जंगल का कोई हिस्सा प्राप्त नहीं कर सकता था। चारागाहों और जंगली भू-भाग को बड़ा महत्व दिया जाता था। हाँ, राज्य की ओर से पुजारियों को यदा-कदा जमीन का एक हिस्सा उपहार/दान में दे दिया जाता था। राजा भी परम्परा से जमीन का स्वामित्वाधिकार देकर कर वसूल कर सकता था। वैसे कृषिकारों के अधिकारों पर कोई आंच नहीं आती थी। कर देकर कृषक-वर्ग राज्य की ओर से अपने लिए सुरक्षा प्राप्त करते थे। ___गांव के सरपंच के माध्यम से सरकारी कामकाज निष्पन्न होता था। उसे ऊंचे अधिकारियों को किसानों की समस्याओं का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार होता था। जब कोई बड़ा अधिकारी गांव में आता तो उसकी सुविधा के लिए सड़क तैयार करने तथा उसके भोजन का प्रबंध करने का जिम्मा सरपंच का ही होता था। इसके लिए ग्रामवासियों से कोई सेवा नहीं ली जाती थी। शिल्पी और मजदूर इस कार्य को अंजाम देते थे। हाँ, ग्रामवासी मिलकर अपनी मर्जी से विश्राम-गृहों और जलाशयों का निर्माण करते थे; अपने गांव की सड़कों तथा पास के गांवों को जोड़ने वाली सड़कें तैयार करते थे। इतना ही नहीं, वे मिलकर उद्यान भी बनाते थे। जनहित के ऐसे कार्यों में स्त्रियां भी उत्साह और गर्व से भाग लेती थीं।
इन गांवों की आर्थिक स्थिति एकरूप होती थी। गांव में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होता था जिसे हम आज की भाषा में धनी अथवा सम्पन्न कह सकें। उनकी सामान्य आवश्यकताएं आसानी से पूरी की जाती थीं। वहाँ सुरक्षा का भाव विद्यमान होता था और वे स्वतंत्र होते थे। इन गांवों में न तो कोई जमीदार होता था और न ही कोई निर्धन। अपराध भी नहीं के बराबर होते थे। जो भी अपराध होते वे गांव की सीमा से बाहर ही होते थे। सुरक्षा की भावना इतनी अधिक होती थी कि लोग अपने घर के द्वारों को हमेशा खुला रखते थे।
हाँ, कभी-कभी इन्हें अकाल दुष्परिणाम भोगने पड़ते थे। वैसे सिंचाई की बहुल सुविधा के कारण गांव में अकाल नहीं पड़ता था। फिर भी तत्कालीन इतिहास में अन्न की कमी के कुछ संदर्भ अवश्य उपलब्ध हो जाते हैं।
समग्रतः तत्कालीन गांवों की समाज-व्यवस्था हमारे आज के गांवों से