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बौद्ध दर्शन में कर्म : एक अध्ययन भौतिक दोनों की पक्षों का स्पष्ट प्रभाव पड़ता है। जहाँ कहा गया है कि नाम चेतना पक्ष और रूप भौतिक पक्ष अन्योन्याश्रय भव से सम्बद्ध है। बौद्ध दर्शन में द्वेष, लोभ, और मोह को कर्मोत्पत्ति का मुख्य कारक माना गया है।
बौद्ध दर्शन में कर्म फल को स्वीकार किया गया है। कर्मफल के कारण ही मनुष्य का जन्म होता है। कर्मो के भेद के कारण ही मनुष्य समान नहीं होते। कुछ सुखी तथा कुछ दुःखी होते हैं तो कुछ स्वस्थ होते है कुछ रुग्ण । कर्मों के विना मानव जीवन नहीं रह सकता। इसके साथ ही विना कर्मों के त्याग के मनुष्य कर्म बन्धन से मुक्ति नहीं पा सकता है। संसार-सागर को पार कर निःस्वार्थ भावना से कुशलता के साथ रहना पड़ता है। उस पूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए कर्म के नियम तथा हमारे जीवन में पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन परमआवश्यक है। कर्म जगत के पुण्य-पाप का अभिव्यक्तिकरण है। मानव में प्रतिबिम्बित यह ब्राह्माण्ड का नियम है। यह एक सार्वभौम सत्य है। प्रत्येक क्रिया भी एक प्रतिक्रिया होती है और अन्ततः प्रत्येक कर्मिक तथ्य अपने मूल को लौट जाता है। जल्दी या देर में प्रत्येक कर्म का फल निकल कर ही रहता है। क्रिया की प्रतिक्रिया होकर रहती है।
कर्म का सिद्धान्त हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचाता है कि जीवन की कोई भी घटना सहसा बिना कारण के नहीं घटती, यह एक भाग्यवादी भावना है क्योंकि कर्मवाद के अनुसार हमारे जीवन की प्रत्येक घटनायें हमारे पूर्वकाल की इच्छा एवं क्रियाओं के परिणाम हैं तथा वे व्यक्ति के अनुभवों एवं पूर्णता के लिए एक अनिवार्य तथ्य है। वर्तमान की प्रत्येक घटनायें भूतकालिक कर्म की पूर्णता का परिचायकिा है। इसी प्रकार भविष्य की घटनायें वर्तमान के परिणाम हैं। पूर्वकालीन कार्य के बिना भोगे समाप्त नहीं किया जा सकता। इस प्रकार वर्तमान के आधार पर भविष्य का निर्धारण किया जा सकता है। जिसके द्वारा वह आत्मशक्ति का विश्वास करता हुआ कर्मबन्धन से मुक्ति कर्मयोग के लक्ष्य प्राप्त करता है। बौद्ध दर्शन में जन्म-मृत्यु का अन्त निर्वाण से ही प्राप्त हो सकता है। थेरवाद की शिक्षा है- सब पापों से दूर रहो, कुशल कर्मों को करो और चित्त को विशुद्ध करो।'
दु:ख एवं विषमता पूर्व जन्मों के नेमी कारण हैं। अहिंसा, ईर्ष्या, अज्ञानता जीवन को कम करती है या बढ़ाती है। अच्छा स्वास्थ्य या खराब स्वास्थ्य