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श्रमण-संस्कृति
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अधीन होता है। अच्छा या बुरा कर्म मस्तिष्क द्वारा नियंत्रित किया जाता बौद्ध दर्शन में नैतिक या अनैतिक चेतना की कर्म है।
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बौद्ध दर्शन के अनुसार कर्म कार्य की उत्पत्ति तृष्णा से होती है, जिसका सम्बन्ध इच्छा तथा वासना से है। इस प्रकार जब तृष्णा के द्वारा कार्यों का जन्म होता है, तब तृष्णा से उत्पन्न कर्म वासनाहीन होती है। इसको तृष्णा निरोध के माध्यम से समाप्त किया जा सकता है। बुद्ध का विचार था कि 'मूर्ख बड़ा या छोटा, विलासिता, ईर्ष्या से युक्त कर्म करते हैं और इन कार्यों के करने का कोई दूसरा कारण नहीं है। बुद्धिमान भिक्षु विलासिता और घृणा से मुक्त ज्ञान प्राप्त कर निर्वाण मार्ग के तरफ ले जाने वाले साधनों का अनुमगन करता है। "
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मिलिन्दपन्ह' में नागसेन का कथन है- कौन मृत्यु के बाद पुनर्जन्म नहीं लेता? पुन: कहते हैं कि वासना से युक्त कर्मों को करने वाला पुनर्जन्मों से मुक्त नहीं होता है । वासना को अन्त कर किया गया कार्य पुनर्जन्म अधिकारी नहीं होता । पुनः नागसेन कहते हैं- जब हम तृष्णा के अस्तित्व में मरते हैं तो जन्म लेते हैं, लेकिन जब तृष्णा से मुक्त होकर मरते हैं तो पुनर्जन्म नहीं होता। इन्होंने कर्म को तृष्णा के द्वारा नियमित माना है। इसी कारण बुद्ध ने अनुदेशित किया कि इच्छा ही जीवन में कार्यों को करने की शक्ति या उत्साह प्रदान करती है। कोई भी व्यक्ति तृष्णा का अन्त कर निर्वाण प्राप्त कर सकता है।
अविद्या ही कर्म का मूल कारण है। कर्म की संस्कारोत्पत्ति एवं संस्कार इच्छाओं का हेतु है। इच्छा ही जीवन का साधन है । इन्हीं के वशीभूत मनुष्य क्रियाओं में संलग्न रहता है जो भवचक्र में फँसा रहता है । सम्पूर्ण कर्म अज्ञात
मूक है। बौद्ध धर्म दर्शन में कर्म अनादि, लौकिक प्रपंच जाल का हेतु माना गया है । जीव, लोक और जगत के फल कर्म जनित हैं ईश्वर कृत नहीं । एक भव के कर्म दूसरे भव के हेतु होते हैं । प्रत्येक भव में पृथक-पृथक संस्कार अविद्या से उद्भुत होते हैं । उपादान कर्म का हेतु है । उपादान अविद्या से उद्भुत होते हैं । उपादान से भव उत्पन्न होता है एवं भव जाति का कारण है। अतः कर्मों की महत्ता बौद्ध दर्शन में है। यह कर्म का सिद्धान्त आचार प्रधान सिद्धान्त के रूप में बौद्ध दर्शन को द्विगुणित करता है। बौद्ध दर्शन में प्रमाद को बन्धन का कारण माना गया है। चेतना शब्द का प्रयोग इस सक्रिया तत्व के रूप में प्रमुख कारण है। मिलिन्दपन्ह के उक्त उल्लेख से कर्मों के बन्धन के चैतसिक एवं