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श्रमण-परम्परा में दिशा-पूजा : एक अनुशीलन
225 दिशाओं से उपर्युक्त चार प्रकार के लौकिक-देवताओं को सम्बन्धित करने की क्रिया दिशा-धर्म में उपर्युक्त चार लौकिक धर्मों के विलय को इंगित करती है। बौद्ध धर्म में चातुर्महाराजिक देवों की कल्पना इस युग में दिशा धर्म एवं अन्य चार लौकिक धर्मों के विलय का प्रतिफल है। ____ बौद्ध साहित्य में इन चातुर्महाराजिक देवों की विशेषताओं का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। दीघ-निकाय में यह वर्णन प्राप्त होता है कि चतुर्महाराजिक देव बोधिसत्व की रक्षा उनके जन्म के समय से ही करते हैं।' आटानाटिय-सुत्त० के अनुसार चतुर्महाराजिक देव न केवल गौतम बुद्ध की अपितु उनके अनुयायियों की भी रक्षा करते हैं। दीघ-निकाय अष्टकथा' में वर्णन हुआ है कि चतुर्महाराजिक देव दीर्घायु, सुन्दर तथा सुख सम्पन्न होते हैं। मज्झिम निकाय में यह कहा गया है कि जो भिक्षु प्रज्ञावान होता है, वह चतुर्महाराजिक देव के लोक में जन्म लेने की कल्पना करता है। अंगुत्तर निकाय के अनुसार दया आदि अच्छे गुणों से युक्त लोग चतुर्महाराजिक देव-लोक में जन्म लेते हैं।
चतुर्महाराजिक देवों की कल्पना को बौद्ध कला (स्तूप-स्थापत्य) में भी अभिव्यक्ति प्रदान किया गया है। बौद्ध कला में स्तूप के चतुर्दिक वेदिका निर्मित की जाती थी तथा इस वेदिका में चारों दिशाओं में चार द्वार बनाए गये थे, जिन्हें तोरण द्वार कहा गया है। प्रत्येक दिशा के तोरण द्वार पर उस दिशा के महाराजिक देव का अंकन किया जाता था। उदाहरणार्थ, सांची एवं भरहुत4-15 स्तूप के तोरण द्वारों पर इन चतुर्महाराजिक देवों का अंकन हुआ है। वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार चतुर्महाराजिक देवों की पूजा लौकिक विधि से की जाती थी। डॉ० अग्रवाल का उपर्युक्त मत समीचीन प्रतीत होता है, क्योंकि चारों महाराजिक देव लौकिक देवता ही हैं। अतः लौकिक विधि से इनकी पूजा होना नितान्त स्वाभाविक है।
बौद्ध धर्म में दिशाओं से देवताओं को सम्बन्धित करने के साथ-साथ दिशाओं से पशुओं को सम्बन्धित करने की परम्परा भी प्रचलित थी। बौद्ध धर्म में अनवतप्त सरोवर की कल्पना है। इसके चार द्वार बताए गए हैं, जिनपर चार रक्षक पशुओं यथा पूर्व में हाथी, दक्षिण में अश्व, पश्चिम में वृषभ एवं उत्तर में सिंह के स्थिति होने की मान्यता थी।” दिशाओं से पशुओं को सम्बन्धित